________________
46 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१६६७
४. अनुपात
-ए,-म्हि, म्मि ४ : २:१
सप्तमी एक | वचन के प्रत्यय
सिर्फ-ए और-म्मि अनुपात ५ : १ शौरसेनी का मुख्य प्रत्यय -म्हि का सर्वथा अभाव
संबंधक भूत कृदन्त के प्रत्ययों का अनुपात
५.द्ग
-च्चा ३ -इय ६ -त्ता १२ -संस्कृत प्रत्यय वाला रूप मात्र ध्वनि परिवर्तन के साथ ६५
-दूण ० दूण -च्चा ० -इय ४ - त्ता २ -ध्वनि परिवर्तन वाला १ -तु १ -तु २ -उं ६ -तूण ६ -ऊण ३६ -ऊणं ७
उपरोक्त उदाहरणों में -तुं और उं प्रत्यय हेत्वर्थक के प्रत्यय हैं जिनका प्रयोग सं०भू० कृदन्त के लिए 'षट्प्राभृत' में किया गया है। यह प्रवृत्ति परवर्ती काल की है और अपभ्रंश काल के समीप ले जाती है।
ऊपर के दोनों ग्रंथों के तुलनात्मक प्रत्ययों से स्पष्ट होता है कि 'प्रवचनसार' की शौरसेनी भाषा से 'षट्प्राभृत' की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत के अधिक नजदीक है। ६. इन प्रयोगों के सिवाय 'षट्प्राभृत' में अपभ्रंश भाषा के सदृश प्रयोगों की बहुलता
है। अनेक प्रयोगों में से कुछ उदाहरण नमूने के रूप में नीचे प्रस्तुत किये जा रहे
७. विभक्ति रहित मूल नाम शब्दों के प्रयोग तथा अन्य अपभ्रंश प्रयोग क. प्रथमा एकवचन
चेइय, ४.६०; अनुगृहण, २.१०; वुत्त, ३.२१; णिम्मम, (स्त्रीलिंग) ४.४६ ख. प्रथमा बहुबचन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org