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श्रमण
'षटप्राभृत' के रचनाकार और उसका रचनाकाल
-डॉ० के० आर० चन्द्र,
डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने 'प्रवचनसार' की प्रस्तावना में 'षट्प्राभृत' के रचनाकार के विषय में जो कुछ अभिप्राय व्यक्त किया है उसी को लेकर यह चर्चा की जा रही है। कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार' और 'षट्प्राभृत' की भाषा का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाय तो उन दोनों की भाषा के स्वरूप से ऐसा लगता है कि ये दोनों कृतियाँ अलग-अलग काल की रचनाएं हैं अतः किसी एक ही आचार्य की ये रचनाएं नहीं हैं ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। इस तथ्य की स्पष्टता के लिए नमूने के रूप में भाषिक प्रयोगों के कुछ उदाहरण नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं
प्रवचनसार
। भाषिक विशेषताएँ।
षट्प्राभृत
१.सिर्फ -दि,-दे
का ही प्रयोग
वर्तमान काल तृ०पु० एकवचन का प्रत्यय अनुपात २१५ : ७४
-इ,-ए प्रत्ययों की संख्या -दि,-दे से तीन गुणी है
२. 'आदा' और 'अप्पा '
'आत्मन्' शब्द के विविधरूप
'आदा' और 'अप्पा' के सिवाय 'आया' भी जो परवी काल का रूप है
३.सिर्फ
नपुंसक शब्दों के लिए । -णि ओर -लिङ्गी भी -णि विभक्ति प्रथमा द्वितीया बहुवचन अनुपात १ : ७
की विभक्तियाँ * पूर्व अध्यक्ष, प्राकृत विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय अहमदाबाद।
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