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________________ दशाश्रुतस्कंधनिर्युक्ति : अन्तरावलोकन : 41 चातुर्मास क्षेत्र ग्रहण की बात स्वीकार करने की स्थिति में किसी प्राकृतिक या मानवीय कारणों से उक्त क्षेत्र - विशेष से साधु के विहार करने पर श्रावकों में उसकी गरिमा की क्षति की सम्भावना है। वर्षावास की अवधि ७० दिन, ८० दिन, तीन महीने, चार महीने, पाँच महीने और अधिकतम छः महीने बतायी गयी है । राजा के दुष्ट होने, सर्पभय, श्रमण के रुग्ण हो जाने और स्थण्डिल भूमि अप्राप्य होने पर चातुर्मास काल के मध्य में ही विहार कल्प्य है । इसीप्रकार अकल्याणकारी परिस्थिति, ऊनोदरी व्रत धारण करने, राजा के दुष्ट होने, वर्षा न रुकने, मार्ग दुर्गम या कीचड़ युक्त होने पर चातुर्मास समाप्त हो जाने के बाद भी श्रमण द्वारा विलम्ब से विहार किया जा सकता है । सामान्यतः चातुर्मास स्थल के चारों दिशाओं में ढाई कोस (८ कि०मी०) तक इस प्रकार दोनों तरफ मिलाकर १६ कि०मी० तक क्षेत्र मर्यादा होती है। कारणवश इसका अपवाद हो सकता है। पर्वतादि पर स्थित चातुर्मास स्थल के सन्दर्भ में क्षेत्र की पाँच और छ: दिशायें भी हो सकती हैं। गाँव यदि उपवन आदि के किनारे हो तो केवल एक और तीन दिशाओं में ही क्षेत्र हो सकता हैं 1 द्रव्यस्थापना आहार, विकृति, संस्तारक, पात्र लोच, सचित्त और अचित्त के त्याग, ग्रहण और धारण की दृष्टि से निरूपित है। ऋतुबद्ध काल की अपेक्षा चातुर्मास में आहार की मात्रा यथासम्भव क्रमशः कम कर देनी चाहिए। विकृति प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार की होती है । प्रशस्त विकृति सामान्यतः, जबकि अप्रशस्त विकृति कारणपूर्वक ग्रहण की जानी चाहिए । वर्षावास हेतु नया संस्तारक ग्रहण करना चाहिए। गुरु दूसरों को भी संस्तारक प्रदान करते हैं । अतः तीन संस्तारक ग्रहण कर सकते हैं। उच्चार, प्रस्रवण और श्लेष्म (कफ) हेतु साधुओं को तीन-तीन पात्र ग्रहण करने का विधान है । वर्षावास काल में जिनकल्पियों को प्रतिदिन लोच करना आवश्यक है, जबकि स्थविरकल्पियों के लिए केवल एक बार । सचित्त त्याग के परिप्रेक्ष्य में निर्दिष्ट है कि पूर्वदीक्षित और श्रद्धावान् के अतिरिक्त अन्य को दीक्षित करना वर्जित हैं। पाँच समितियों के पालन, गुण और दोषों की आलोचना, पाप न करने और पूर्व में किये गये पापों का प्रायश्चित्त करने का उपदेश है। क्षमापना में कुम्भकार, उदायन-चण्डप्रद्योत और चेट द्रमक का दृष्टान्त, चारों कषायों के भेद-प्रभेदों का उपमा सहित निर्देश, क्रोध में मरुक् का, मान में अत्यहंकारिणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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