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________________ दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति : अन्तरावलोकन : 39 छेदसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध में वर्णित गुरु सम्बन्धी आशातना निमित्तों का यदि अकारण आचरण किया जाय तो उससे गम्भीर कर्मों का बन्ध होता है। कारण उपस्थित होने पर इन आशातनाओं का आचरण करने वाला गम्भीर कर्म का बन्ध नहीं करता है। श्रमण को गुरु-आशातना से बचना चाहिए। चतुर्थ अध्ययन 'गणिसम्पदा' में गणि को द्रव्य और भाव रूप से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। द्रव्यगणि अर्थात् गणि का संसारी शरीर और भाव गणि से तात्पर्य उसका आचारसम्पदा आदि गुणों से युक्त होना है। गणि का मुख्य गुण गणसंग्रह और उपकार करना तथा धर्मज्ञ होना है। गणि द्वारा गणसंग्रह द्रव्य और भाव दो दृष्टियों से होता है। द्रव्य अपेक्षा से शिष्यों के लिए वस्रादि संग्रह और भाव अपेक्षा से शिष्यों के लिए ज्ञानादि का संग्रह। इसीप्रकार गणि गणोपकारक भी द्रव्य और भाव दोनों की अपेक्षा से होता है। द्रव्योपग्रह से अभिप्राय आहारादि द्वारा कृपा और भावोपग्रह का अर्थ रुग्ण, वृद्धादि के संरक्षण रूप है। गणिधर्म अर्थात गणिस्वभाव को जानने वाला गणि कहा जाता है। द्रव्यगण अर्थात् गच्छ और भावगण अर्थात् ज्ञानादि को धारण करने में समर्थ को गणि कहा जाता है। सम्पदा नाम, स्थापना, द्रव्य , क्षेत्र, काल और भाव निक्षेप से छः प्रकार की होती है। द्रव्य दृष्टि से गणि की सम्पदा शरीर है। औदयिकादि छः प्रकार के भाव सम्पदा हैं। आठवीं गणिसम्पदा संग्रह परिज्ञा भी नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव रूप से छः प्रकार की होती है। पर्वत, कन्दरा, शिलाखण्डों आदि विषम स्थानों पर अपने शरीर पर उगे हुए दाँतों को बिना खिन्न हुए वहन करने वाले गज की भाँति गणि भी जिनभक्त, साधर्मिक तथा असमर्थों को विषम क्षेत्र और दुष्काल में सरलतापूर्वक वहन करता है। पंचम अध्ययन 'मनः समाधि' की नियुक्ति मात्र एक गाथा में है। इस अध्ययन को श्रेणिअध्ययन भी कहा जाता है। इसमें उपासक के चार भेद-द्रव्य, तदर्थ, मोह और भाव निर्दिष्ट हैं। छठवें 'उपासकप्रतिमा' अध्ययन में उपासक-श्रावक के उपर्युक्त चारों भेदों का लक्षण बताकर श्रावक ही उपासक है, श्रमण नहीं, इसका युक्तिपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। द्रव्य और भाव निक्षेपों की अपेक्षा से प्रतिमा का स्वरूप बताया गया है। द्रव्योपासक-संसारी शरीर धारण करने वाला, तदर्थोपासक-ओदनादि पदार्थों की इच्छा वाला, मोहोपासक कुप्रवचन और कुधर्म की उपासना करने वाला और भावोपासक श्रमणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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