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28 : श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर / १६६७
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तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये लोग जिसे अर्धमागधी कह रहें हैं उसे महाराष्ट्री भी मान ले तो उसके भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं । सातवाहन नरेश हाल की गाथासप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन ग्रन्थ है, जो ई०पू० प्रथम शती ईसा की प्रथम शती के मध्य रचित है ।
पुनः यह एक संकलन ग्रन्थ है जिसमें अनेक ग्रन्थों से गाथाएँ संकलित की गई हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ रचे गये थे । कालिदास के नाटकों जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम् रुप मिलता है, भी ईसा की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ स्पष्ट रूप से न केवल अर्धमागधी आगमों से, अपितु परवर्ती 'य' श्रुति प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं, किसी भी स्थिति में ईसा की पांचवीं छठीं शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं। षट्खण्डागम् और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५वीं शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों और उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र (लगभग चतुर्थ शती) से परवर्ती ही सिद्ध करती हैं, क्योंकि इनमें ये अवधारणायें अनुपस्थित हैं। इस सम्बन्ध में मैंने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' और 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश है । इस प्रकार सत्य तो यह है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी आगम नहीं, अपितु शौरसेनी भाषा ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और शौरसेनी आगम ईसा० की ५वीं शती के पश्चात् अस्तित्त्व में आये। अच्छा होगा कि भाई सुदीप जी पहले मागधी और पालि तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर एवं इनके प्रत्येक के लक्षणों तथा जैन आगमिक साहित्य के ग्रन्थों के कालक्रम और जैन इतिहास को तटस्थ दृष्टि से समझ लें और फिर प्रमाण सहित अपनी कलम निर्भीक रूप से चलायें, व्यर्थ की आधारहीन भ्रान्तियाँ खड़ी करके समाज में कटुता के बीज न बोयें।
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