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________________ 26 : श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर / १६६७ या आधार संस्कृत शब्द हैं। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृतों में तीन प्रकार के शब्दरूप मिलते हैं- तद्भव, तत्सम् और देशज । देशज शब्द वे हैं जो किसी देश विशेष में किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त हैं। इनके अर्थ की व्याख्या के लिये व्याकरण की कोई आवश्यकता नहीं होती है । तद्भव शब्द वे हैं जो संस्कृत शब्दों से निर्मित हैं जबकि संस्कृत के समान शब्दतत्सम् हैं। संस्कृत व्याकरण में दो शब्द प्रसिद्ध हैं- प्रकृति और प्रत्यय। इनमें मूल शब्दरूप को प्रकृति कहा जाता है। मूल शब्द से जो शब्दरूप बना है वह तद्भव है। प्राकृत व्याकरण संस्कृत शब्द से प्राकृत का तद्भव शब्दरूप कैसे बना है, इसकी व्याख्या करता है । अतः यहाॅ संस्कृत को प्रकृति कहने का तात्पर्य मात्र इतना कि तद्भव शब्दों के सन्दर्भ में संस्कृत शब्द को आदर्श मानकर या माडल मानकर यह व्याकरण लिखा गया है। अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। संस्कृत शब्द रूप को मॉडल / आदर्श मानना इसलिये आवश्यक था कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के जानकार विद्वानों को दृष्टि में रखकर या उनके लिये ही लिखे गये थे। जब डॉ० सुदीपजी शौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' का अर्थ मॉडल या आदर्श करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि के सन्दर्भ में प्रकृतिः शौरसेनी का अर्थ भी यही करना चाहिए कि शौरसेनी को मॉडल या आदर्श मानकर इनका व्याकरण लिखा गया है- इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। हेमचन्द्र ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, मागधी आदि प्राकृतों को समझाया है अतः इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि महाराष्ट्री प्राचीन है या महाराष्ट्री से मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई । प्राचीन कौन ? अर्धमागधी या शौरसेनी इसी सन्दर्भ में टॉटिया जी के नाम से यह भी प्रतिपादित किया गया है कि "यदि वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल आगम साहित्य मानने पर जोर देंगे तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से १५०० वर्ष पहले अस्तित्त्व ही नहीं होने से इन स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को ही ५०० ई० के परवर्ती मानना पड़ेगा "। ज्ञातव्य है कि यहाॅ भी महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अन्तर को न समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी के 'त' श्रुति प्रधान पाठ चूर्णियों और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे हैं। उससे निःसंदेह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी 'त' श्रुति प्रधान थी और उसमें लोष की प्रवृत्ति नगण्य ही थी और यह अर्धमागधी भाषा शौरसेनी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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