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जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी : 25
जी को इसका प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए।
वस्तुतः जब किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया जाता है, तो एकरूपता के लिये नियम या व्यवस्था आवश्यक होती है और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं। विभिन्न प्राकृतों को जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया तो उनके लिये भी व्याकरण के नियम आवश्यक हुए और ये व्याकरण के नियम मुख्यतः संस्कृत से गृहीत किये गये। जब व्याकरणशास्त्र में किसी भाषा की प्रकृति बताई जाती है तब वहाँ तात्पर्य होता है कि उस भाषा के व्याकरण के नियमों का मूल आदर्श किस भाषा के शब्द रूप हैं? उदाहरण के रूप में जब हम शौरसेनी के व्याकरण की चर्चा करते हैं तो हम यह मानते हैं कि उसके व्याकरण का आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं को छोड़कर जिसकी चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत के शब्द रूप हैं:
किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता है फिर बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है। जब साहित्यिक भाषा बनती है तब उसके लिये व्याकरण के नियम बनाये जाते हैं, ये व्याकरण के नियम जिस भाषा के शब्दरूपों के आधार पर उस भाषा के शब्दरूपों को समझाते हैं वही कसी प्रकृति कहलाते हैं। यह सत्य है कि बोली का जन्म पहले होता है, व्याकरण उसके बाद बनता है। शौरसेनी अथवा प्राकृत की प्रकृति को संस्कृत मानने का अर्थ इतना ही है कि इन भाषाओं के जो भी व्याकरण बने हैं वे संस्कृत शब्द रूपों के आधार पर बने है। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत का कोई भी व्याकरण प्राकृत के लिखने या बोलने वालों के लिये नहीं बनाया गया, अपितु, उनके लिये बनाया गया जो संस्कृत में लिखते या बोलते थे। यदि हमें किसी संस्कृत के जानकार व्यक्ति को प्राकृत के शब्द या शब्दरूपों को समझाना हो तो हमें उसका आधार संस्कृत को ही बनाना होगा और उसी के आधार पर यह समझाना होगा कि संस्कृत के किसी शब्द से प्राकृत का कौन सा शब्दरूप कैसे निष्पन्न हुआ है इसलिये जो भी प्राकृत व्याकरण निर्मित किये गये अपरिहार्य रूप से वे संस्कृत शब्दों या शब्दरूपों को आधार मानकर प्राकृत शब्द या शब्दरूपों की व्याख्या करते हैं। संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहने का इतना ही तात्पर्य है। इसी प्रकार जब मागधी, पैशाची या अपभ्रंश की 'प्रकृति' शौरसेनी को कहा जाता है तो उसका तात्पर्य होता है, प्रस्तुत व्याकरण के नियमों में इन भाषाओं के शब्दरूपों को शौरसेनी शब्दों को आधार मानकर समझाया गया है। प्राकृत प्रकाश की टीका में वररुचि ने स्पष्टतः लिखा है- शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां प्रकृतिः संस्कृतम् (१२/२) अर्थात् शौरसेनी के जो शब्द हैं उनकी प्रकृति
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