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________________ 18 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर /१६६७ 'प्रकृतिः संस्कृतम्' (प्राकृतप्रकाश १२/२), इस सूत्र की व्याख्या में 'प्रकृतिः' का जन्मदात्रीयह अर्थ अस्वीकार कर चुके हैं। इसकी विस्तृत समीक्षा हमने अग्रिम पृष्ठों में की है। इसके प्रत्युत्तर में मेरा दूसरा तर्क यह है कि यदि शौरसेनी प्राकृत ग्रन्थों के आधार पर ही मागधी के प्राकृत आगमों की रचना हुई, तो उनमें किसी भी शौरसेनी प्राकृत के ग्रन्थ का उल्लेख क्यों नहीं है? श्वेताम्बर आगमों में वे एक भी संदर्भ दिखा दें, जिनमें भगवतीआराधना, मूलाचार, षट्खण्डागम, तिलोयपण्णत्ति, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार आदि का उल्लेख हुआ हो। टीकाओं में भी मलयगिरि (तेरहवीं शती) ने मात्र 'समयपाहुड' का उल्लेख किया है, इसके विपरीत मूलाचार, भगवतीआराधना और षट्खण्डागम की टीकाओं में एवं तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, आदि सभी दिगम्बर टीकाओं में इन आगमों एवं नियुक्तियों के उल्लेख हैं। भगवतीआराधना की टीका में तो आचारांग, उत्तराध्ययन, कल्प तथा निशीथ से अनेक अवतरण भी दिये गये हैं। मूलाचार में न केवल अर्धमागधी आगमों का उल्लेख है, अपित उनकी सैकड़ों गाथाएँ भी हैं। मूलाचार में आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि की अनेक गाथाएँ अपने शौरसेनी शब्द रूपों में यथावत् पायी जाती हैं। . दिगम्बर परम्परा में जो प्रतिक्रमणसूत्र उपलब्ध हैं, उसमें ज्ञातासूत्र के उन्हीं १६ अध्ययनों के नाम मिलते हैं, जो वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध ज्ञाताधर्मकथा में उपलब्ध हैं। तार्किक दृष्टि से यह स्पष्ट है कि जो ग्रन्थ जिन-जिन ग्रन्थों का उल्लेख करता है, वह उनसे परवर्ती ही होता है, पूर्ववर्ती कदापि नहीं। शौरसेनी आगम या आगमतुल्य ग्रन्थों में यदि अर्धमागधी आगमों के नाम मिलते हैं तो फिर शौरसेनी और उसका रचित साहित्य अर्धमागधी आगमों से प्राचीन कैसे हो सकता है? आदरणीय टॉटिया जी के माध्यम से यह बात भी उठायी गयी कि मूलतः आगम शौरसेनी में रचित थे और कालान्तर में उनका अर्धमागधीकरण (महाराष्ट्रीकरण) किया गया। यह एक ऐतिहासिक सत्य हैं कि जैनधर्म का उद्भव मगध में हुआ और वहीं से वह दक्षिणी एवं उत्तरपश्चिमी भारत में फैला । अतः आवश्यकता हुई अर्धमागधी आगमों के शौरसेनी और महाराष्ट्री रूपान्तरण की, न कि शौरसेनी आगमों के अर्धमागधी रूपान्तरण की। सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी या महाराष्ट्री में रूपान्तरित हुए न कि शौरसेनी आगम अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए। अतः ऐतिहासिक तथ्यों की अवहलना कर मात्र कुतर्क करना कहाँ तक उचित है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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