________________
16 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९६७
स. अन्य ग्रन्थ, ईसा की छठी शती के पश्चात् १०. तिलोयपण्णति- यतिवृषभ ११. लोकविभाग १२. जंबूद्वीपपण्णत्ति १३. अंगपण्णत्ति १४. क्षपणसार १५. गोम्मटसार (दसवीं शती)
किन्तु इनमें से कसायपाहुड को छोड़कर कोई भी ग्रन्थ ऐसा नहीं है, जो पाँचवीं शती के पूर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त एवं सप्तभंगी की चर्चा अवश्य करते हैं और गुणस्थान की चर्चा जैन दर्शन में पांचवीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनुपस्थित है। श्वेताम्बर आगमों में समवायांग और आवश्यक नियुक्ति की दो प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णतः अनुपस्थित है, जबकि षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इनकी चर्चा पायी जाती है, अतः ये सभी ग्रन्थ उनसे परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती टीकाएँ गुणस्थान की विस्तृत चर्चाए प्रस्तुत करती हैं। उमास्वाति का काल तीसरी-चौथी शत. के लगभग है। अतः यह निश्चित है कि गुणस्थान का सिद्धान्त पांचवीं शती में अस्तित्त्व में आया है। अतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा है, ईसा की पांचवी शती के पूर्व का नहीं है। प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में मात्र कसायपाहुड ही ऐसा है जो स्पष्टतः गुणस्थानों का उल्लेख नहीं करता है, किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से १२ गुण स्थानों की चर्चा उपलब्ध है, अतः वह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस अवस्थाओं, जिनका उल्लेख आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में है से परवर्ती और गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के संक्रमण काल की रचना है, अतः उसका काल भी चौथी से पांचवीं शती के बीच सिद्ध होता है। शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला
शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार भी किया जाता है कि यह नारायण कृष्ण और तीर्थंकर अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही है, क्योंकि इन दोनों महापुरुषों का जन्म शूरसेन जनपद में हुआ था और ये शौरसेनी प्राकृत में ही अपना वाक् व्यवहार करते थे। डॉ० सुदीप जी के शब्दों में “इन दोनों महापुरुषों के प्रभावक व्यक्तित्व के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org