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________________ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी : 15 कद्दूकर उल्लेख करती हैं, वे सभी मूलतः अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर परम्परा में नन्दीसूत्र में उल्लिखित आगम हो, चाहें मूलाचार, भगवती आराधना और उनकी टीकाओं में या तत्त्वार्थ और उसकी दिगम्बर टीकाओं में उल्लिखित आगम हो, अथवा अंगपण्णत्ति एवं धवला के अंग और अंग बाह्य के रूप में उल्लेखित आगम हो, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध रहा हो । हाँ इतना अवश्य है कि इनमें से कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित संस्करण माथुरी वाचना के लगभग चतुर्थ शती के समय अस्तित्व में अवश्य आये थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी आगम कहना उचित नहीं होगा, वस्तुतः ये आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों के ही शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय परम्परा में मान्य थे और जिनकी भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वे. मान्य आगमों से समरूपता थी । इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने " जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय" नामक ग्रन्थ के तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं। 1 वस्तुतः आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते है उनमें मुख्यतः निम्न ग्रन्थ आते हैं: अ. यापनीय आगम १. कसायपाहुड, लगभग ईसा की चौथी शती, गुणधर २. षट्खण्डागम, ईसा की पाँचवीं शती का उत्तरार्ध, पुष्पदंत और भूतबली ३. भगवती आराधना, ईसा की छठी शती, शिवार्य ४. मूलाचार, ईसा की छठी शती - वट्टकेर ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मूलतः यापनीय परम्परा के हैं और इनमें अनेकों गाथाएँ श्वे. मान्य आगमों, विशेष रूप से निर्युक्तियों और प्रकीर्णकों के समरूप हैं । ब. कुन्दकुन्द द्वारा रचित ईसा की छठी शती के लगभग के ग्रन्थ ५. समयसार ६. नियमसार ७. प्रवचनसार पंचास्तिकायसार ८. ६. अष्टपाहुड ( इनका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना सन्दिग्ध है, क्योंकि इसकी भाषा * में अपभ्रंश के शब्द भी पाये जाते हैं) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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