________________
12 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१६६७
पस्सदि, आदि बनते हैं, इन क्रिया रूपों का प्रयोग उन ग्रन्थों में हुआ भी है, किन्तु . उन्हीं ग्रन्थों के क्रिया रूपों पर महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक प्रभाव है, इसे
निम्न उदाहरणों से जाना जा सकता हैसमयसार (वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी)
जाणइ (गाथा सं० १०), हवई (११ ३१५, ३८६, ३८४), मुणइ (३२), वुच्चइ (४५) कुइ (८१,२८६, ३१६, ३२१, ३२५, ३४०), परिणमइ (७६,७६,८०), (ज्ञातव्य है कि समयसार के इसी संस्करण की गाथा क्रमांक ७७,७८,७६, में परिणमदि रूप भी मिलता है)। इसी प्रकार के अन्य महाराष्ट्री प्राकृत के रूप, जैसे वेयई (८४), कुणई (७१,६६, २८६, २६३, ३२२, ३२६), होइ (६४, १६७, ३०६, ३४६, ३५८), करेई (६४, २३७, २३८, ३२८, ३४८), हवई (४१, ३२६, ३२६), जाणई (१८५, ३१६, ३१६, ३२०, ३६१), बहइ (१८६) सेवइ (१६७), मरइ (२५७, २६०), (जबकि गाथा २५८ में मरदि है), पावइ (२६१, २६२), धिप्पइ (२६६), उप्पज्जइ (३०८), विणस्सइ (३१२, ३४५), दीसइ (३२३), आदि भी मिलते हैं। ये तो कुछ ही उदाहरण हैं- ऐसे अनेकों महाराष्ट्री प्राकृत के क्रिया रूप समयसार में उपलब्ध हैं। न केवल समयसार अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि की भी यही स्थिति है।
- बारहवीं शती में रचित वसुनन्दिकृत श्रावकाचार (भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी बदतर है, उसकी प्रारम्भ की सौ गाथाओं में ४०प्रतिशत क्रिया रूप महाराष्ट्री प्राकृत के हैं।
इससे फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी आगमों के भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा भी न केवल अधिक वैविध्य है, अपितु उस महाराष्ट्री प्राकृत का भी व्यापक प्रभाव है, जिसे सुदीप जी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे हैं। यदि ये ग्रन्थ प्राचीन होते तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव कहाँ से आता? प्रो० ए०एन० उपाध्ये ने प्रवचनसार की भूमिका में स्पष्टतः यह स्वीकार किया है कि उसकी भाषा पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो० खड़बड़ी ने तो षटखण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं माना है। 'न' कार और 'ण' कार में कौन प्राचीन
अब हम णकार और नकार के प्रश्न पर आते हैं। भाई सुदीप जी आपका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org