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जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी : 11
में भाषिक तत्त्व की एकरूपता है, जबकि अर्धमागधी आगम साहित्य में भाषा के विविध रूप पाये जाते हैं। उदाहरण स्वरूप शैरसेनी में सर्वत्र “ण” का प्रयोग मिलता है, कहीं भी 'न' का प्रयोग नहीं है, जबकि अर्धमागधी में नकार के साथ-साथ णकार का प्रयोग भी विकल्पतः मिलता है। यदि शौरसेनी युग में नकार का प्रयोग अलग भाषा में प्रचलित होता तो दिगम्बर साहित्य में कहीं तो विकल्प से प्राप्त होता।" (प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर ६६, पृ०७.)
यहाँ डॉ० सुदीप जैन ने दो बातें उठाई हैं- प्रथम शौरसेनी आगम साहित्य की भाषिक एकरूपता की और दूसरी ‘ण' कार और 'न' कार की। क्या सुदीप जी आपने शौरसेनी आगम साहित्य के उपलब्ध संस्करणों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से कोई प्रामाणिक अध्ययन किया है? यदि आपने किया होता तो आप ऐसा खोखला दावा प्रस्तुत नहीं करते? आप केवल 'ण' कार का ही उदाहरण क्यों देते हैं- वह तो महाराष्ट्री और शौरसेनी दोनों में सामान्य है। दूसरे शब्द रूपों की चर्चा क्यों नहीं करते हैं? नीचे मैं दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों से ही कुछ उदाहरण दे रहा हूँ, जिनसे उनके भाषिकतत्त्व की एकरूपता का दावा कितना खोखला है यह सिद्ध हो जाता है। मात्र यही नहीं इससे यह भी सिद्ध होता है शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थ न केवल अर्धमागधी से प्रभावित हैं, अपितु उससे परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत से भी प्रभावित हैं:१. आत्मा के लिये अर्धमागधी में आता, अत्ता, अप्पा, आदि शब्द रूपों के प्रयोग उपलब्ध
हैं, जबकि शौरसेनी में "द" श्रुति के कारण “आदा" रूप बनता है। समयसार में “आदा" के साथ-साथ “अप्पा" शब्द रूप जो कि अर्धमागधी का है अनेक बार प्रयोग में आया है। केवल समयसार में ही नहीं, अपितु नियमसार
(१२०,१२१,१८३) आदि में भी "अप्पा" शब्द का प्रयोग है। २. श्रुत का शौरसेनी रूप “सुद" बनता है। शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में अनेक स्थानों
पर “सुद" “सुदकेवली" शब्द के प्रयोग भी हुए हैं, जबकि समयसार (वर्णी ग्रन्थमाला गाथा ६ एवं १०) में स्पष्ट रूप में "सुयकेवली” “सुयणाण" शब्दरूपों का भी प्रयोग मिलता है और ये दोनों महाराष्ट्री शब्द रूप हैं तथा परवर्ती भी हैं। अर्धमागधी
में तो सदैव ‘सुत' शब्द का प्रयोग होता है। ३. शौरसेनी “द" श्रुतिप्रथान है साथ ही उसमें “लोप" की प्रवृत्ति अत्यल्प है, अतः
उसके क्रिया रूप “हवदि, होदि, कुणदि, गिण्हदि, कुव्वदि, परिणमदि, भण्णदि,
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