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________________ ३ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७ जन्दकिशोर देवराज ने “स्यात्” से “कदाचित् " का अभिप्राय लिया है । हीरालाल जैन ने “स्यात्” को “अस्' धातु के विधिलिङ्ग का अन्यपुरुष स्वीकार करते हुए "ऐसा हो' एक सम्भावना यह भी है" जैसे दो आशयों की पुष्टि की है । ११ परन्तु इन मतों के गुण-दोषों के विवेचन तथा “स्यात् " शब्द पर समग्र रूप से विचार करने पर इसका “कथंचित्' अर्थ लेना ही अधिक वस्तुपरक लगता है ।१२।। इस प्रकार “स्यात्' का अर्थ होगा “सापेक्षिक दृष्टिकोण' ! स्यादस्त्येव का अर्थ होगा - स्वरूपादि की अपेक्षा वस्तु है ही । मज्झिम निकाय के राहुलोवादसुत्त में राहुल को उपदेश देते हुए स्वयं बुद्ध भी “सिया", जिसका आशय "स्यात्" से लिया जा सकता है, का प्रयोग किया है, १३ जहाँ वह "तेजो धातु'' के दो सुनिश्चित भेदों के संज्ञान में सहायक सिद्ध हुआ है । “स्यादस्ति' वाक्य में जहाँ “अस्ति' द्रव्य अथवा उसके गुण-विशेष के अस्तित्व का प्रतिपादन करता है, वहीं “स्यात्' पद उस द्रव्य में सम्पस्थित नास्तित्व और अन्य अनेक धर्मों के रहने की ओर संकेत करता है । जैन चिन्तन के अनुसार कोई भी प्रत्यय तभी सत्य हो सकता है जब वह बाह्य वस्तु के धर्म को अभिव्यक्त करे ।१४ अत: “स्याद्वाद" भाषा का वह निर्दोष प्रकार है जिसके द्वारा अनेकान्त वस्तु के परिपूर्ण और यथार्थ स्वरूप के अधिकाधिक समीप पहुँचा जा सकता जैन दर्शन का यह सुस्पष्ट मन्तव्य है कि जगत् का कोई भी द्रव्यविशेष बहधर्मी है । अत: उसका नि:शेष ज्ञान “केवलिन् ” को छोड़कर किसी सामान्य व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है । स्वयं केवलिन्' भी जिस पर्याय को उसने कल भविष्यत् रूप से जाना था, आज उसे वर्तमान रूप से जानता है, अत: केवलिन् का ज्ञान भी काल भेद से बदलता रहता है क्योंकि प्रत्येक "द्रव्य' पर्याय की दृष्टि से परिवर्तनशील है ।१५ द्रव्य के सम्पूर्ण ज्ञान के बावजूद यदि सुपात्र नहीं है तो उसे समग्रज्ञान की अनुभूति नहीं कराई जा सकती। अत: समग्रज्ञान की अनुभूति और उसकी युगपत् समग्र अभिव्यक्ति अत्यन्त कठिन या प्रायः असम्भव है । किसी भी नय में प्रयुक्त "स्यात्' पद से वस्तु के उन धर्मों की ओर परोक्ष संकेत होता है जिनका उस "नय' विशेष में उल्लेख तक नहीं होता, ताकि व्यक्ति के मन में वस्तु की अनेकधर्मिता की प्रतीति बनी रहे । वह एकाङ्गी निर्णय से बचा रह सके, दूसरे, व्यक्ति मत-सम्प्रदाय के अनुभूतिजन्य निर्णय के प्रति भी यथावश्यक सम्मान व्यक्त करे । ___ अब यह जिज्ञासा सहज स्वाभाविक है कि “अनेकान्तवाद" एवं “स्याद्वाद" की यह अवधारणा जैन धर्म-दर्शन की अभिनव देन है अथवा इसी प्रकार की किसी पूर्व 'अवधारणा का संशोधित-परिवर्धित रूप । इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार करते हुए ऐसा लगता है कि यदि परम्परावादी दृष्टि से विचार किया जाय तो अनेकान्तवाद की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525031
Book TitleSramana 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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