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________________ श्रमण / जुलाई-सितम्बर/ १९९७ 4 प्रतिलिपि में कुल ४ पत्र (८ पृष्ठ ) हैं । इनके दोनों ओर लिखा गया है । प्रत्येक पत्र की लम्बाई १०३" और चौड़ाई ५ " हैं । प्रत्येक पृष्ठ पर १६ - १६ पंक्तियां हैं, अंतिम पत्र के एक ओर १५ पंक्तियां तथा दूसरी ओर १० पंक्तियां हैं । प्रत्येक लाइन में लगभग २० से २२ शब्द तक हैं । पत्र के चारों ओर करीब १ इंच जगह छोड़कर बीचों बीच लेखन कार्य किया गया है। लिखावट सुस्पष्ट है । प्रस्तुत सम्पादन कार्य इसे आदर्श प्रति के रूप में 'अ' प्रति मानकर इसके आधार पर ही कार्य किया गया है । यह ग्रंथ पद्यमय है । इसमें दोहा, चौपाई आदि छन्दों का विशेष प्रयोग किया है । यदा-कदा घत्ता आदि छंद भी हैं । सम्पूर्ण संवाद में १५२ पद हैं । प्रारम्भ में मंगलाचरण के पूर्व "अथ पंचेन्द्रिय की चौपाई लिख्यते" इस तरह ग्रन्थ प्रारम्भ किया गया है । प्रतिलिपिकार ने समापन इस तरह किया - "इती पंचेन्द्रिय संवाद समाप्तं संवत् १९१० पोषमासे कृष्णपक्षे अष्टमी तिथौ शुक्रवार लिपिकृत गोविन्द उसवाल दैवतपुर नगर मध्ये || " ५२ : पंचेन्द्रिय संवाद : एक परिचय- यह आध्यात्मिक रूपक काव्य है । पुरानी हिन्दी भाषा के जैन कवियों द्वारा रचित इस तरह के अनेक रूपक काव्यों द्वारा सूक्ष्म भावनाओं का विश्लेषण किया है । उन्होंने अपने इन लघु रूपक काव्यों में नैसर्गिक पात्रों की कल्पना कर उनके व्याख्यानों द्वारा जीवन के प्रकाश और अंधकार पक्ष की मौलिक रूप उद्भावना में की है । इन रूपकों का उद्देश्य मनुष्य को ज्ञान और क्रिया आदि की महत्ता द्वारा दुःख की निवृत्ति दिखलाकर लोककल्याण और उसके वैभव की प्रतिष्ठा कर आत्मकल्याण की ओर अग्रसर करना है । आध्यात्मिक रूपक काव्य के रचनाकारों में मुख्यतः महाकवि बनारसीदास, भैया भगवतीदास आदि कवियों का नाम गौरव से लिया जाता है । भैया भगवतीदास जी द्वारा रचित अनेक रूपक काव्य उपलब्ध हैं, जिनमें मधु - बिन्दुक चौपाई, चेतन - कर्म चरित्र, उपादान - निमित्त संवाद, गुरु-शिष्य प्रश्नोत्तरी, पंचेन्द्रिय संवाद आदि प्रमुख हैं । इनमें भी पंचेन्द्रिय संवाद बड़ा ही मार्मिक रूपक-काव्य है । कवि ने इसमें पाँच इन्द्रियों तथा मन को पात्र रूप में प्रस्तुत करके प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा स्वयं उनकी विभिन्न भावनाओं के साथ ही अपनी-अपनी महत्ता और गरिमा वर्णन तथा एक दूसरे की निंदा (आलोचना करते हुये दिखाया है । इन्द्रियों के पक्ष-विपक्ष को प्रस्तुत संवाद में कवि ने दोहा, सोरठा, घत्ता के अतिरिक्त विभिन्न प्राचीन दुर्लभ (तत्कालीन प्रसिद्ध लोक प्रचलित) राग-रागिनियों, ढालों को आधार बनाकर कई पदों की रचना की है । पद के प्रारंभ में ही उन रागिनियों तथा ढाल का नाम देते हुये, नमूने के तौर पर उनकी एक पंक्ति को प्रस्तुत कर दिया है। ये ढालें उस समय जन सामान्य में सहज गेय रही होंगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525031
Book TitleSramana 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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