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________________ १३४ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/ १९९७ द्रव्यानुपूर्वी का अनेक अवान्तर भेदों के साथ निरूपण किया गया है । पांचवें प्रकरण में क्षेत्रानुपूर्वी के वर्ण्य विषयों यथा-अधोलोक, तिर्यग्लोक एवं ऊर्ध्वलोक का वर्णन किया गया है । छठे प्रकरण में कालानुपूर्वी की चर्चा में काल के सूक्ष्मतम विभाग से सर्वाध्वा तक का निरूपण किया गया हैं । सातवें प्रकरण में उपोद्घात के प्रमुख अंग के रूप में नामपद का विस्तृत निरूपण किया गया है । आठवें प्रकरण में संगीत, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि अनेक विषयों का समावेश किया गया है । साथ ही इसमें कृतिकानक्षत्र आदि कालगणना को भी विवेचित किया गया है। नौवें प्रकरण में प्रमाण की चर्चा के अन्तर्गत-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण एवं भावप्रमाण में से द्रव्य एवं क्षेत्र प्रमाणों का निरूपण इस प्रकरण में किया गया है । दसवें प्रकरण में कालप्रमाण की चर्चा में समय की सुन्दर प्रज्ञापना की गयी है । ग्यारहवें प्रकरण में भावप्रमाण की चर्चा की गयी है । इसमें प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम प्रमाणचतुष्टय की विवेचना की गयी है । बारहवें प्रकरण में वक्तव्यता पर नयदृष्टि से विचार किया गया है । अंतिम तेरहवें प्रकरण में निक्षेप के नाम, द्रव्य, भाव आदि तीन प्रकारों का निरूपण किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अनुयोगद्वारसूत्र के मूलपाठ के अतिरिक्त उसकी संस्कृत छाया एवं हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है, जिससे वर्ण्यविषयों का अभिगम सहजता से हो जाता है । रेखाचित्र के माध्यम से दी गयी विषय-सूची सम्पूर्ण प्रकरण के वर्ण्यविषय को पाठकों के सामने सहजता से प्रस्तुत करने में समर्थ है । प्रत्येक प्रकरण के प्रारम्भ में. दिया गया आमुख उस प्रकरण से सम्बद्ध विषयों की सूचना के साथ अन्य आगमों से उनके अन्तर को यथास्थान स्पष्ट करता है एवं अन्त में दिया गया सूत्रानुसार टिप्पण विषयों के स्पष्टीकरण में सहयोगी है । अन्त में सम्पादक ने परिशिष्ट के अन्तर्गत, विशेषानुक्रम पदानुक्रम, टिप्पण-अनुक्रम, शब्द-विमर्श और विस्तृत सन्दर्भ-ग्रन्थ-सची देकर मूलग्रन्थों के अनुवाद एवं अर्थ प्रकटन में एक नयी विधा का परिचय दिया है। सम्पादक अवश्य ही इसके लिए बधाई के पात्र हैं । प्रूफ सम्बन्धी अशुद्धियां कतिपय स्थानों पर रह गयी हैं जो प्रकाशन में अस्वाभाविक नहीं है । ग्रन्थ की साज-सज्जा आकर्षक एवं मुद्रणकार्य निर्दोष है । ग्रन्थ पठनीय एवं संग्रहणीय है। डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय जागो मेरे पार्थ - महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर, प्रकाशक- जितयशा फाउंडेशन, ९ सी, एस्प्लानेड रोड ईस्ट, कलकत्ता - ६९, साईज-डिमाई, कवर-हार्ड बाउंड, संस्करण-१९९६, पृ० २०२; मूल्य ३० रुपये । गीता विश्व की एक महान् कृति है । यह पथा-विमुख मनुष्य का मार्गदर्शन करती है । इसमें मानव के भीतर चल रहे ऊहापोह का समाधान इस रूप में किया जाता है कि वह जितेंद्रिय बन सके । आत्म-उत्थान कर सके । गीता के प्रमुख पात्र अर्जुन, जिसे पार्थ भी कहा जाता है, की मोहावस्था का भंजन श्रीकृष्ण द्वारा जिस प्रकार किया गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525031
Book TitleSramana 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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