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________________ १३० : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/ १९९७ प्रायश्चित्तों का विवरण है, किन्तु ये आचार नियम और उनके उल्लंघन की दशा में की जाने वाली प्रायश्चित्तव्यवस्था निरपेक्ष नहीं हो सकती, उसमें देश, काल, व्यक्ति, परिस्थिति आदि अनेक तथ्यों का विचार आवश्यक होता है । इन्ही सब बातों की स्पष्टता को लक्ष्य में रखकर इन छेदसूत्रों पर भाष्यों की रचनाएं हुईं । भाष्य मुख्य रूप से इस बात पर विचार करते हैं कि किन परिस्थितियों में, किस प्रकार के व्यक्ति को, किस प्रकार का आचरण करना चाहिए अथवा किन परिस्थितियों में किन आचार नियमों के उल्लंघन में, किस व्यक्ति को किस प्रकार का प्रायश्चित्त दिया जाना चाहिए । छेदसूत्रों पर रचे गये भाष्य वस्तुत: जैन आचार की विस्तृत व्याख्यायें ही हैं । भाष्य साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों में आवश्यकभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहार-भाष्य, निशीथभाष्य आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है । व्यवहार-भाष्य में चार हजार छ: सौ चौरानबे (४६९४) गाथायें हैं। इसमें न केवल जैन आचार और प्रायश्चित्त-व्यवस्था सम्बन्धी सामग्री है अपितु जैन इतिहास, संस्कृति और कथा-साहित्य से सम्बद्ध विपुल सामग्री भी उपलब्ध है । व्यवहारभाष्य का उसकी मलयगिरि टीका के साथ प्रकाशन आज से लगभग ७० वर्ष पूर्व हुआ था। यह ग्रन्थ लम्बे समय से अनुपलब्ध था और दो-चार पुस्तकालयों को छोड़कर यह सामान्यतया अध्येताओं और पाठकों के लिये दुष्षाप्य ही बन गया था। जैन विश्वभारती, लाडनूं ने समणी कुसुमप्रज्ञा जी द्वारा इसे सम्यक् प्रकार से सम्पादित करवा कर प्रकाशित किया, एतदर्थ विद्वत्वर्ग उनके इस उपकार के प्रति चिर आभारी रहेगा । आज के युग में जैन परम्परा में ग्रन्थों का प्रकाशन तो बहुत हो रहा है, किन्तु . मूल-ग्रन्थों के प्रकाशन के प्रति उपेक्षा ही हो रही है । ऐसी स्थिति में व्यवहारभाष्य का पुनर्प्रकाशन एक आह्लादजनक सुखद सूचना है । प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन निश्चय ही एक चुनौतीपूर्ण दायित्व था । समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने अपनी अल्पवय में ही इतने महान दायित्व को स्वीकार कर उसे सम्यक रूप से सम्पन्न किया है । इसके लिये निश्चय ही वे बधाई की पात्र हैं । उन्होंने पाठों को सम्यक प्रकार से संशोधित किया है । वस्तुतः उनके इस श्रम का अनुभव तो वही व्यक्ति कर सकता है जिसने हस्तप्रतों के आधार पर पाठसंशोधन किया हो । पाठान्तरों की अवस्था में कौन सा पाठ सम्यक होगा यह निर्णय कर पाना सामान्य व्यक्ति का कार्य नहीं है । विशेषरूप से विविध शब्द रूपों वाली प्राकृत भाषा के मूलग्रन्थों के पाठ संशोधन में तो और भी कठिनाइयां हैं । भाषा और विषय का सम्यक् ज्ञान तो चाहिए ही किन्तु उसके साथ-साथ कालक्रम से शब्द रूपों में हुए परिवर्तन और परम्परागत देशी और पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान भी आवश्यक होता है । प्रस्तुत सम्पादन में उन्होंने इन सभी पक्षों पर पूरा ध्यान दिया है । कुसुमप्रज्ञा जी ने अपनी प्रज्ञा का उपयोग इस महान ग्रन्थ के सम्पादन में कर के युवा अध्येताओं के सामने एक आदर्श प्रस्तुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525031
Book TitleSramana 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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