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________________ श्रमण समणसुत्तं - जैन गीता, संकलन कर्त्ता आचार्य श्री विद्यासागर जी, अंग्रेजी अनुवादक के. के. दीक्षित, प्रकाशक (पृष्ठ सं. ४४८ ) ६० रुपये पुस्तक समीक्षा - Jain Education International - श्री जिनेन्द्र वर्णी, हिन्दी पद्यानुवादक न्यायमूर्ति टी. के. टुकोल तथा डॉ. मूल्य - आमग प्रकाशन, जैनपुरी, रेवाड़ी (हरियाणा), वैदिक परम्परा में जो महत्त्व श्रीमद्भगवद्गीता का है, बौद्धधर्म में धम्मपद का है वही जैन समुदाय में 'समणसुत्तं' का है, अन्तर केवल इतना है कि भगवद्गीता तथा धम्मपद तो प्राचीनकाल से ही रचित ग्रन्थ रूप में प्राप्त हैं किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ वर्तमान काल में विविध जैन आगम ग्रन्थों से सूक्तियों तथा धार्मिक नैतिक उपदेशों को संगृहीत कर निर्मित किया गया है । इस ग्रन्थ की, प्रतिपाद्य विषय के धार्मिक महत्त्व के अतिरिक्त एक विशेषता यह भी है कि इसका विषय जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों★ दिगम्बर, श्वेताम्बर तेरापन्थी, स्थानकवासी तथा मूर्तिपूजक को समानरूप से मान्य है । अध्यात्मतत्त्व तथा नैतिकतत्त्व से ओतप्रोत इस ग्रन्थरत्न में समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्टपाहुड, पञ्चास्तिकाय, द्रव्यसंग्रह, गोमट्टसार आदि विविध ग्रन्थों की सुन्दर लोकप्रिय और परमोपयोगी गाथाएं संगृहीत की गई हैं । 'समणसुत्तं' के निर्माण में मूल प्रेरणास्रोत प्रसिद्ध समाजसेवी तथा सर्वसेवासंघ के अधिष्ठाता आचार्य विनोबा भावे हैं । पच्चीस सौवें वीर निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में उन्होंने कहा था “मैने कई दफा जैनों से प्रार्थना की थी कि जैसे वैदिक धर्म का सार गीता में मिलता है, बौद्धों का धम्मपद में मिलता है जिसके कारण ढाई हजार साल के बाद भी बुद्ध का धर्म लोगों को ज्ञात है वैसा ही जैनों का भी होना चाहिये ।" इसी से प्रेरणा प्राप्त कर श्री जिनेन्द्र वर्णी जी ने अथक परिश्रम से समस्त जैन ग्रन्थों के सागरमन्थन से प्रस्तुत "श्रमणसूक्तम्" नामक नवनीत निकाला, जिसकी सभी जैन सम्प्रदायों में लोकप्रियता सिद्ध हुई है। इसका सर्वप्रथम प्रकाशन सर्वसेवा संघ, वाराणसी से हुआ था, उसी को आधार मान कर प्रस्तुत प्रकाशन किया गया है । - इसमें ७५६ गाथाएँ हैं । प्रत्येक गाथा के नीचे उसकी संस्कृत छाया भी दी गयी है । जिसके कारण संस्कृतज्ञों को गाथा का अर्थ समझने में सुविधा हो गई है । इसके अतिरिक्त प्रत्येक गाथा का हिन्दी में छन्दोबद्ध अनुवाद भी दिया गया है और अन्त में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525031
Book TitleSramana 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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