________________
श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७ : ११७
श्रमण पाठकों की दृष्टि में १. आदरणीय सम्पादक महोदय,
इस बार 'श्रमण' का अप्रैल-जून, १९९७ का अंक आदि से अन्त तक पढ़ गया । बहुत ही उपयोगी सामग्री है। इसमें जैन धर्म के विविध पक्षों की चर्चा की गयी है । अजैनों के लिये भी यह महत्त्वपूर्ण सामग्री है।
डॉ० के० आर० चन्द्र, भू० पू० अध्यक्ष प्राकृत विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय ७७-३७५, सरस्वती नगर, अम्बावाडी, अहमदाबाद ३८००१५ २. सम्पादक महोदय,
आपकी सम्पादकीय आन्वीक्षिकी और प्रतिभा से मण्डित "श्रमण" (त्रैमा०) का अप्रैल-जून १९९७ अंक मिला । कहना न होगा की “श्रमण" का प्रत्येक अंक अपने आप में ग्रन्थकल्प होता है । इस अंक के हिन्दी खंड को डॉ. सागरमल शोध-साहित्य विशेषांक या परिशिष्टांक कहें, तो अत्युक्ति नहीं होगी । आपकी बहुआयामी आहेत प्रतिभा नमस्य है । इस अंक के १६० पृष्ठों में परिवेषित विद्यास्वादमयी शोध-सामग्री का प्रत्येक पृष्ठ पठनीय और संग्रहणीय है । विशेषतया 'जैन, बौद्ध और हिन्दूधर्म का पारस्परिक प्रभाव; 'आचार्य हेमचन्द्र': एक युगपुरुष तथा सम्राट अकबर और जैन धर्म ये तीनों आलेख मेरे लिए तो अधिक ज्ञानोन्मेषक हैं ।। . डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव, पी.एन. सिन्हा कालोनी, भिखनपहाड़ी, पटना-६ ३. सम्पादक महोदय,
'श्रमण' का जनवरी-मार्च १९९७ का अंक प्राप्त कर अति प्रसन्नता हुई । सामग्री का चयन विशिष्ट तरीके से किया गया है जो सम्पादकों की सम्पादकीय प्रतिभा का परिचायक है।
सुदीप जैन 'सरल', अनेकान्त ज्ञान मंदिर, छोटी बजरिया, बीना (म०प्र०) ४. सम्पादक महोदय,
आपका अप्रैल-जून १९९७ का 'श्रमण' अंक बहत अभ्यासपूर्ण, वाचनीय और उद्बोधक है । अचेलकत्व और सचेलकत्व तथा स्त्री मुक्ति सम्बन्धी लेख विशेष पसंद आया । आपको इन सबके लिए बधाई और धन्यवाद । - उ० के० पुंगलिया, मानद मंत्री, सन्मति तीर्थ, पुणे ।
श्री राजमल जी पवैया की नवीन कृतियों का लोकार्पण
भोपाल, १३ जुलाई, १९९७, महामहिम राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा ने स्थानीय राजभवन में प्रसिद्ध कवि और तत्त्वमर्मज्ञ श्री राजमलजी पवैया द्वारा तत्त्वसार विधान एवं तत्त्वानुशासन विधान नामक पुस्तकों का लोकापर्ण किया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org