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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न ८९ पश्चिमोत्तर भारत में श्वेताम्बर परम्परा का बाहुल्य है। वस्तुत: इसका कारण जलवायु ही है। दक्षिण में जहाँ शीतकाल में आज भी तापमान २५-३० डिग्री सेल्सियस से नीचे नहीं जाता, वहाँ नग्न रहना कठिन नहीं है किन्तु हिमालय के तराई क्षेत्र, पश्चिमोत्तर भारत एवं राजस्थान जहाँ तापमान शून्य डिग्री से भी नीचे चला जाता है, वहाँ शीतकाल में अचेल रहना कठिन है। पुन: एक युवा साधक को शीत सहन करने में उतनी कठिनाई नहीं होती जितनी कि वृद्ध तपस्वी साधक को। अत: जिन क्षेत्रों में शीत की अधिकता थी उन क्षेत्रों में वस्त्र का प्रवेश स्वाभाविक ही था। आचारांग में हमें ऐसे मुनियों के उल्लेख उपलब्ध हैं जो शीतकाल में सर्दी से थर-थर काँपते थे। जो लोग उनके आचार, अर्थात् आग जलाकर शीत-निवारण करने के निषेध से परिचित नहीं थे, उन्हें यह शंका भी होती थी कि कहीं उनका शरीर कामावेग में तो नहीं काँप रहा है। यह ज्ञात होने पर कि इनका शरीर सर्दी से काँप रहा है, कभी-कभी वे शरीर को तपाने के लिये आग जला देने को कहते थे, जिसका उन मुनियों को निषेध करना होता था। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र-प्रवेश के लिये उत्तर भारत की भयंकर सर्दी भी एक मुख्य कारण रही है। ४. महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का तीसरा कारण पार्श्व की परम्परा के मनियों का महावीर की परम्परा में सम्मिलित होना भी है। यह स्पष्ट है कि पार्श्व की परम्परा के मुनि सचेल होते थे। वे अधोवस्त्र और उत्तरीय दोनों ही धारण करते थे। हमें सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती, राजप्रश्नीय आदि में न केवल पार्श्व की परम्परा के मुनियों के उल्लेख मिलते हैं अपितु उनके द्वारा महावीर के संघ में पन: दीक्षित होने के सन्दर्भ भी मिलते हैं। इन सन्दर्भो का सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि पार्श्व की परम्परा के कुछ मुनियों ने तो महावीर की परम्परा में सम्मिलित होते समय अचेलकत्व ग्रहण किया, किन्तु कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अचेलता को ग्रहण नहीं किया। सम्भव है कुछ पापित्यों को सचेल रहने की अनुमति देकर सामायिक चारित्र के साथ महावीर के संघ में सम्मिलित किया गया होगा। इस प्रकार महावीर के जीवनकाल में या उसके कुछ पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ में सचेल-अचेल दोनों प्रकार की एक मिली-जुली व्यवस्था स्वीकार कर ली गयी थी और पार्श्व की परम्परा में प्रचलित सचेलता को भी मान्यता प्रदान कर दी गयी। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में प्रारम्भ में तो मुनि की अचेलता पर ही बल दिया गया था, किन्तु कालान्तर में लोकलज्जा और शीत-परीषह से बचने के लिये आपवादिक रूप में वस्त्र-ग्रहण को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525030
Book TitleSramana 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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