SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न समाप्त ( छेद ) कर नवीन दीक्षा ( उपस्थापन ) देना। आज भी श्वेताम्बर परम्परा में छेदोपस्थापना के समय ही महाव्रतारोपण कराया जाता है और तभी दीक्षित व्यक्ति की संघ में क्रम-स्थिति अर्थात् ज्येष्ठता/कनिष्ठता निर्धारित होती है और उसे संघ का सदस्य माना जाता है। सामायिक चारित्र ग्रहण करने वाला मुनि संघ में रहते हुए भी उसका सदस्य नहीं माना जाता है। इस चर्चा से यह फलित होता है कि निर्ग्रन्थ मुनि-संघ में सचेल ( क्षुल्लक ) और अचेल ( मुनि ) ऐसे दो प्रकार के वर्गों का निर्धारण महावीर ने या तो अपने जीवन-काल में ही कर दिया होगा या उनके परिनिर्वाण के कुछ समय पश्चात् कर दिया गया होगा। आज भी दिगम्बर परम्परा में साधक की क्षुल्लक ( दो वस्त्रधारी ), ऐलक ( एक वस्त्रधारी) और मुनि ( अचेल ) ऐसी तीन व्यवस्थाएँ हैं। अत: प्राचीनकाल में भी ऐसी व्यवस्था रही होगी इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि इन सभी सन्दर्भो में वस्त्र-ग्रहण का कारण लोक-लज्जा या लोकापवाद और शारीरिक स्थिति ही था। ३. महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का तीसरा कारण सम्पूर्ण उत्तर भारत, हिमालय के तराई क्षेत्र तथा राजस्थान में शीत का तीव्र प्रकोप होना था। महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में स्थित वे मुनि जो या तो वृद्धावस्था में ही दीक्षित हो रहे थे या वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हो रहे थे, उनका शरीर इस भयंकर शीत के प्रकोप का सामना करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा था। ऐसे सभी मुनियों के द्वारा यह भी सम्भव नहीं था कि वे संथारा ग्रहण कर उन शीतलहरों का सामना करते हुए अपने प्राणोत्सर्ग कर दें। ऐसे मनियों के लिये अपवाद मार्ग के रूप में शीत-निवारण के लिये एक ऊनी वस्त्र रखने की अनुमति दी गई। ये मुनि रहते तो अचेल ही थे, किन्तु रात्रि में शीत-निवारणार्थ उस ऊनी-वस्त्र ( कम्बल ) का उपयोग कर लेते थे। यह व्यवस्था स्थविर या वृद्ध मुनियों के लिये थी और इसलिये इसे 'स्थविरकल्प' का नाम दिया गया। मथुरा से प्राप्त ईस्वी सन् प्रथमद्वितीय शती की जिन प्रतिमाओं की पाद-पीठ पर या फलकों पर जो मुनि प्रतिमाएँ अंकित हैं वे नग्न होकर भी कम्बल और मुखवस्त्रिका लिये हुए हैं। मेरी दृष्टि में यह व्यवस्था भी आपवादिक ही थी। हम देखते हैं कि महावीर का जो मुनि-संघ दक्षिण भारत या दक्षिण मध्य भारत में रहा उसमें अचेलता सुरक्षित रह सकी, किन्तु जो मुनि-संघ उत्तर एवं पश्चिमोत्तर भारत में रहा उसमें शीत-प्रकोप की तीव्रता की देश-कालगत परिस्थितियों के कारण वस्त्र का प्रवेश हो गया। आज भी हम देखते हैं कि जहाँ भारत के दक्षिण और दक्षिण-मध्य क्षेत्र में दिगम्बर परम्परा का बाहुल्य है, वहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525030
Book TitleSramana 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy