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________________ १०२ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न वस्त्र-ग्रहण को स्वीकार करता था और उत्सर्ग मार्ग अचेलता को ही मानता था। आचारांग के 'भावना' नामक अध्ययन में महावीर के एक वर्ष तक वस्त्र युक्त होने के उल्लेख को वह विवादास्पद मानता था। अपराजित ने इस सम्बन्ध में विभिन्न प्रवादों का उल्लेख भी किया है५ - जैसे कुछ कहते हैं कि वह छ: मास में काँटे, शाखा आदि से छिन्न हो गया। कुछ कहते हैं कि एक वर्ष से कुछ अधिक होने पर उस वस्त्र को खण्डलक नामक ब्राह्मण ने ले लिया। कुछ कहते हैं कि वह वस्त्र वायु से गिर गया और भगवान् ने उसकी उपेक्षा कर दी। कोई कहते हैं कि विलम्बनकारी ने उसे जिन के कन्धे पर रख दिया आदि। इस प्रकार अनेक विप्रतिपत्तियों के कारण अपराजित की दृष्टि में इस कथन में कोई तथ्य नहीं है। पन: अपराजित ने आगम से अचेलता के समर्थक अनेक सूत्र भी उद्धृत किये हैं,१६ यथा - "वस्त्रों का त्याग कर देने पर भिक्षु पुन: वस्त्र-ग्रहण नहीं करता तथा अचेल होकर जिन रूप धारण करता है। भिक्षु यह नहीं सोचे कि सचेलक सुखी होता है और अचेलक दुःखी होता है, अत: मैं सचेलक हो जाऊँ। अचेल को कभी शीत बहुत सताती है, फिर भी वह धूप का विचार न करे। मुझ निरावरण के पास कोई छादन नहीं है, अत: मैं अग्नि का सेवन कर लँ ऐसा भी नहीं सोचे।' इसी प्रकार उन्होंने उत्तराध्ययन के २३वें अध्याय की गाथायें उद्धृत करके यह बताया कि पार्श्व का धर्म सान्तरोत्तर था। महावीर का धर्म तो अचेलक ही था। पुन: दशवैकालिक में मुनि को नग्न और मुण्डित कहा गया है। इससे भी आगम में अचेलता ही प्रतिपाद्य है - यह सिद्ध होता है। इस समग्र चर्चा के आधार पर यापनीय संघ का वस्त्र सम्बन्धी दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। उनके इस दृष्टिकोण को संक्षेप में निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है - १. श्वेताम्बर परम्परा, जो जिनकल्प के विच्छेद की घोषणा के द्वारा वस्त्र आदि के सम्बन्ध में महावीर की वैकल्पिक व्यवस्था को समाप्त करके सचेलकत्व को ही एक मात्र विकल्प बना रही थी, यह बात यापनीयों को मान्य नहीं थी। २. यापनीय यह मानते थे कि जिनकल्प का विच्छेद सुविधावादियों की अपनी कल्पना है। समर्थ साधक इन परिस्थितियों में या इस युग में भी अचेल रह सकता है। उनके अनुसार अचेलता ( नग्नता ) ही जिन का आदर्श मार्ग है, अत: मुनि को अचेल या नग्न ही रहना चाहिये। ३. यापनीय आपवादिक स्थितियों में ही मुनि के लिये वस्र की ग्राह्यता को स्वीकार करते थे, उनकी दृष्टि में ये आपवादिक स्थितियाँ निम्नलिखित थीं - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525030
Book TitleSramana 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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