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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न १०१ ( कडासण ), चटाई आदि की याचना करें। पुन: उसके 'वस्त्रैषणा' ३६ अध्ययन में कहा गया है कि जो लज्जाशील है वह एक वस्त्र धारण करे, दूसरा प्रतिलेखना हेतु रखे। जुंगित ( देश-विशेष ) में दो वस्त्र धारण करे और तीसरा प्रतिलेखना हेतु रखे, यदि ( शीत ) परीषह सहन नहीं हो तो तीन वस्त्र धारण करें और चौथा प्रतिलेखना हेतु रखे। पुन: उसके पात्रैषणा३" में कहा गया है कि लज्जाशील, जुंगित अर्थात् जिसके लिंग आदि हीनाधिक हों तथा पात्रादि रखने वाले के लिये वस्त्र रखना कल्पता है। पुन: उसमें कहा गया है तुम्बी का पात्र, लकड़ी का पात्र अथवा मिट्टी का पात्र यदि जीव, बीजादि से रहित हो तो ग्राह्य है। यदि वस्त्र-पात्र ग्राह्य नहीं होते तो फिर ये सूत्र आगम में क्यों आते ? पुन: आचारांग३८ के 'भावना' नामक अध्ययन में कहा गया है कि भगवान् एक वर्ष तक चीवरधारी रहे, उसके बाद अचेल हो गये। साथ ही सूत्रकृतांग:९ के 'पुण्डरीक' नामक अध्ययन में कहा गया है कि भिक्षु, वस्त्र और पात्र के लिये धर्मकथा न कहे। निशीथ में कहा गया है कि जो भिक्षु अखण्ड-वस्त्र और कम्बल धारण करता है उसे मास-लघु ( प्रायश्चित्त का एक प्रकार ) प्रायश्चित्त आता है। इस प्रकार आगम में वस्त्र-ग्रहण की अनुज्ञा होने पर भी अचेलता का कथन क्यों किया जाता है ? इसका समाधान करते हुए स्वयं अपराजितसूरि कहते हैं कि आगम में कारण की अपेक्षा से आर्यिकाओं को वस्त्र की अनुज्ञा है, यदि भिक्षु लज्जालु है अथवा उसकी जननेन्द्रिय त्वचारहित हो या अण्डकोष लम्बे हों अथवा वह परीषह ( शीत ) सहन करने में अक्षम हो तो उसे वस्त्र धारण करने की अनुज्ञा है। आचारांगर में ही कहा गया है कि संयमाभिमुख स्त्री-पुरुष दो प्रकार के होते हैं – सर्वश्रमणागत और नो-सर्वश्रमणागत। उनमें सर्वश्रमणागत स्थिरांग वाले पाणि-पात्र भिक्षु को प्रतिलेखन के अतिरिक्त एक भी वस्त्र धारण करना या छोड़ना नहीं कल्पता है। बृहत्कल्पसूत्र में भी कहा गया है कि लज्जा के कारण अंगों के ग्लानियुक्त होने पर देह के जुंगित ( वीभत्स ) होने पर अथवा परीषह ( शीतपरीषह ) सहन करने में असमर्थ होने पर वस्त्र धारण करे। पुनः आचारांग में यह भी कहा गया है यदि ऐसा जाने की शीतऋतु ( हेमन्त ) समाप्त हो गयी है तो जीर्ण वस्त्र प्रतिस्थापित कर दे अर्थात् उनका त्याग कर दे। इस प्रकार ( आगमों में ) कारण की अपेक्षा से वस्त्र का ग्रहण कहा है। जो उपकरण कारण की अपेक्षा से ग्रहण किया जाता है उसके ग्रहण करने की विधि और गृहीत उपकरण का त्याग अवश्य कहा जाता है। अत: आगम में वस्त्र-पात्र की जो चर्या बतायी गयी है वह कारण की अपेक्षा से अर्थात् आपवादिक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय संघ मात्र आपवादिक स्थिति में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525030
Book TitleSramana 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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