________________
श्रमण / जुलाई-सितम्बर/ १९९६ : ४५
या मरने वाला और सम्यक् क्रिया-विशेषण से अभिप्राय है— सब प्रकारसे, अच्छी तरह, भली-भाँति, उचित रूप से, सही ढंग से, स्पष्ट रूप से सम्मानपूर्वक, सचमुच आदि ।
पुन: जब हम 'सम्यक्' शब्द को तोड़कर देखते हैं तब सम् + यक् के अनुसार 'सम' एक अव्यय के रूप में है जिसका व्यवहार शोभा, समानता, संगति, उत्कृष्टता, निरंतरता, औचित्य आदि सूचित करने के लिए शब्द के आरम्भ में होता है। जैसे— सम् + भोग = संभोग, सम् + योग संयोग, सम् + तुष्ट = संतुष्ट |
=
'यक् का अर्थ एक से लिया जाता है। फारसी में यक का अर्थ एक होता है जो संख्यावाची विशेषण के रूप में व्यक्त है। इन तमाम उदाहरणों से 'सम्यक्' शब्द का संकुचित अर्थ विस्तार पा जाता है। अब हम दर्शन, ज्ञान और चारित्र की चर्चा करेंगे जो सम्यक् के साथ जैन दर्शन में प्रतिष्ठित है।
'दर्शन' का साधारण भाषा में अर्थ देखना है । दार्शनिक प्रक्रिया का उद्देश्य समस्त ब्रह्माण्ड को एक साथ देखना या सम्पूर्ण दृष्टि प्राप्त करना है। विशेष अर्थों में कहें तो सातों तत्त्वों और आत्मा आदि में पूरी-पूरी श्रद्धा होना दर्शन । जैनदर्शन में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष— ये सात प्रकार के तत्त्व माने गये हैं, इन्हीं के प्रति पूरी श्रद्धा रखना।
'ज्ञान' का तात्पर्य जानने से है और विशेष सन्दर्भों में इसका अभिप्राय है न्याय, प्रमाण द्वारा प्रमाणित सात या नौ तत्त्वों का ठीक-ठीक और पूरा ज्ञान ।
ज्ञातव्य हो कि 'सात' या 'नौ' दोनों ही अंक पूर्णता के बोधक हैं। साथ ही 'सात' का सम्बन्ध जीवन के सम्पूर्ण परिचर्या से भी जुड़ा हुआ है। सात दिनों का सप्ताह होना, सात रंगों का होना, ज्ञान और प्रकाशीय ऊर्जा के द्योतक सूर्य के रथ में सात घोड़ों का होना, संगीत के सप्तस्वर, सप्त ऋषि, सप्तर्षि पिण्ड, सप्तसिंधु आदि तमाम में 'सात' हमारे आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन में सम्पूर्णता का बोध कराता है और यही हमारी सम्यक् दृष्टि, सम्यक् ज्ञान को परिचालित करती है। मसलन, किसी भी वस्तु या विषय को सम्पूर्ण देखे बिना उसकी सही जानकारी नहीं होती। जब हमारी दृष्टि सम्पूर्ण होती है तभी हमें सम्पूर्ण या सही जानकारी मिलती है। इसी सन्दर्भ में सम्यक् दर्शन हमें सम्यक् ज्ञान की ओर ले जाता है और जब सम्यक् दर्शन और ज्ञान की गंगा हमारे भीतर प्रवाहित होने लगती है तब हमारा चारित्र स्वयं ही सही, शुद्ध और सम्यक् हो जाता है। बहुत ही धर्म तथा शुद्धतापूर्ण आचरण करना ही 'चारित्र' है। यानि सम्पूर्ण रूप से, पूरी तरह शुद्ध आचरण ही सम्यक् चारित्र है । दर्शन की भाषा में संवर और निर्जरा के निमित्त से सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् ज्ञान के आधार पर जो आचरण होता है, उसे सम्यक् चारित्र कहते हैं। हमारा तात्पर्य 'सम्यक्' से सम्पूर्णता का बोध कराना है, क्योंकि बिना सम्पूर्ण दर्शन और ज्ञान के शुद्ध चारित्र की कल्पना बेमानी होगी। पूर्व वर्णित 'सम्यक्'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org