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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
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१६. आचार्य अमृतचन्द्र, समयसार कलश क्रं. १११ की अन्तिम २ पंक्तियाँ निम्नानुसार
“विश्वस्योपरि ते तरंति सततं ज्ञानं भवंत: स्वयं
ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यांति प्रमादस्य च" १७. आचार्य मानतुंग, आदिनाथ. स्तोत्र, श्लोक क्र. ७ १९. आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक क्र. १०२ १९. आचार्य कुन्दकुन्द, प्रवचनसार गाथा क्र. १६०
प्रोफेसर, भौतिक विज्ञान विभाग
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.) (बी.- २२० विवेकानन्द कालोनी, उज्जैन म. प्र. ४५६ ०१०
. प्रार्थनाएँ हृद्-वीणा से नि:सृत मौन मुखरित प्रार्थना के स्वर, भाव प्रधान हैं वरदान हैं। शून्य में तैरती प्रार्थनाएँ ससीम असीम से जुड़ती हैं, जीवन की दिशाएँ निरपेक्ष सौन्दर्य की ओर मुड़ती हैं, जहाँ- जन्म-मृत्यु का कोलाहल नहीं, अभिनव तट पर जाकर रुकती हैं।
-महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर सत्य लिखे
समय का सन्धि-पत्र
सत्य की किरण लिखे, समय के दर्पण में,
बिम्ब-प्रतिबिम्ब दिखे।
-महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
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