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________________ श्रमण/अप्रैल-जून/१९९६ : ५ रचना-प्रक्रियाओं के चयन में सहायता मिलेगी। पाणिनीय व्याकरण के परिप्रेक्ष्य में आचार्य हेमचन्द्र के शब्दानुशासन का अनुशीलन बहुत ही रुचिकर हो सकता है। पाणिनि, कातन्त्र एवं अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों की दाय को ग्रहण कर हेमचन्द्र ने ऐसे व्याकरण ग्रन्थ की रचना की जो अपेक्षाकृत ज्यादा व्यावहारिक, सरल एवं सुबोध है। बारहवीं शताब्दी में गुजरात में जन्मे आचार्य हेमचन्द्र अपनी प्रखर प्रतिभा एवं वैदुष्य के लिए प्रख्यात हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य हेमचन्द्र एक सफल वैयाकरण के साथ उच्चकोटि के आलंकारिक, कवि, दार्शनिक एवं लोकचरित्र के उन्नायक हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी के अनुकरण के आधार पर इन्होंने भी अपने शब्दानुशासन की रचना आठ अध्यायों में की है। इन्होंने अपने शब्दानुशासन में अष्टाध्यायी के सैकड़ों सूत्रों को यथावत् रूप में और सैकड़ों सूत्रों को किञ्चित् परिवर्तन के साथ रख दिया है। अष्टाध्यायी में उपन्यस्त समस्त वर्ण्यविषयों -- संज्ञा, सन्धि, सुबन्त, अव्यय, तिङन्त , समास, कारक, तद्धितान्त एवं कृदन्त, का समावेश हेमचन्द्र ने अपने शब्दानुशासन में किया है। इस अनुकरण के बावजूद यह कृति अपनी विवेचन शैली एवं प्रक्रियागत वैशिष्ट्य की दृष्टि से सर्वथा एक मौलिक रचना है। इनके प्रयोगों एवं उदाहरणों में लोकभाषाओं का भी प्रामाण्य परिलक्षित होता है। ___महावैयाकरण महर्षि पाणिनि के व्याकरण की प्रक्रिया की वैज्ञानिकता एवं सर्वश्रेष्ठता पर तो अंगुली उठायी ही नहीं जा सकती है, प्रश्न केवल प्रक्रियागत विस्तार, जटिलता एवं दुर्बोधगम्यता का है। इस दृष्टि से जब हम आकलन करते हैं तो पाते हैं कि पाणिनि रूपी सूर्य की जटिलता रूपी तपिश से व्याकुल अध्येता को हेम रूपी चन्द्र की सरलता रूपी चाँदनी से शान्ति एवं मनस्तोष प्राप्त होता है। यहाँ इसी सन्दर्भ में स्थालीपुलाकन्यायेन कतिपय बिन्दुओं पर उपर्युक्त विशेषताओं का अवलोकन किया जाता १. शब्द-रूपों की सिद्धि के प्रकरण में जहाँ पाणिनीय व्याकरण की प्रक्रिया आगम, आदेश एवं अनुबन्धादि से जटिल हो गयी है वहीं हेम अपनी प्रक्रिया को इन उलझनों से मुक्त रखते हुए या तो कम से कम आगमादि का प्रयोग करते हैं या फिर शब्द रूपों के अनुरूप ही अपने सूत्रों द्वारा सीधे आदेश कर देते हैं। यथा -- युष्मद् एवं अस्मद् शब्दों की रूप-सिद्धि में हेम का प्रक्रिया-लाघव - १. त्वमहं सिना प्राक्चाकः। २/१/१२ २. यूयं वयं जसा। २/१/१३ ३. तुभ्यं मह्यं ङया। २/१/१४ ४. तव मम ङसा। २/१/१५ यहाँ जैसा कि सूत्रों से स्पष्ट है हेम ने तत्तद् विभक्तियों में तत्तद् रूपों को ही सीधे सूत्रों में उल्लिखित कर दिया है। इसके विपरीत पाणिनि इन रूपों की सिद्धि की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525026
Book TitleSramana 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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