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________________ पचा पाणिनीय व्याकरण का सरलीकरण और आचार्य हेमचन्द्र श्यामधर शुक्ल संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास प्राचीन काल से लेकर अद्यावधि महावैयाकरण पाणिनि की प्रौढ़ कृति 'अष्टाध्यायी' से अभिभूत रहा है। लौकिक संस्कृत के प्रारम्भिक काल से ही पाणिनीय व्याकरण-धारा का अजस्र प्रवाह निर्बाध गति से प्रवहमान है। संस्कृत व्याकरणशास्त्र की यह प्रथम ज्ञात कृति चिर-प्राचीन होकर भी चिर-नवीन है। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में अपने पूर्वकालिक वैयाकरणों' शाकल्य, स्फोटायन एवं भागुरि आदि का सादर-नामोल्लेख तो किया है किन्तु उनकी कृतियाँ अनुपलब्ध हैं। एक वैज्ञानिक की भाँति इस भाषा-वैज्ञानिक ( वैयाकरण ) ने प्रेक्षण, परिकल्पना, प्रयोग एवं सिद्धान्त द्वारा व्याकरणशास्त्र का साङ्गोपाङ्ग विवेचन प्रस्तुत किया। ऐसा साङ्गोपाङ्ग विवेचन कि जिससे कोई भी उत्तरवर्ती वैयाकरण सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सका। वार्तिककार कात्यायन एवं भाष्यकार पतञ्जलि दोनों अपनी नितान्त मौलिकता के बावजूद पाणिनीयअक्ष पर ही घूर्णन करते हैं। अष्टाध्यायी की न्यूनता का शोधन कर उसको सर्वाङ्गपूर्ण बनाने में मुनिद्वय की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सच तो यह है कि मुनित्रय ( पाणिनि, कात्यायन एवं पतञ्जलि ) ने ऐसा परिनिष्ठित व्याकरण सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि संस्कृत भाषा का परिष्कृत रूप स्थिर हो गया। पाणिनीय-तन्त्र की श्रीवृद्धि करने में सिद्धान्तकौमुदीकार भट्टोजि दीक्षित एवं परिभाषेन्दुशेखरकार नागेशभट्ट दोनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। पाणिनीय परम्परा की यह सर्वाङ्गपूर्णता उसकी महत्ता एवं प्रबलता के साथसाथ उसकी दुर्बलता की भी प्रत्यायक है। जैसा कि हम देखते हैं कि पाणिनीय पद्धति से इतर व्याकरण पद्धतियाँ - शाकटायन, कातन्त्र, चान्द्र, सारस्वत एवं जैनेन्द्र व्याकरण का पल्लवन तो हुआ किन्तु विकास नहीं हो पाया। पाणिनीय प्रभामण्डल की चकाचौंध में ये पद्धतियाँ निस्तेज हो गयीं। पाणिनीय तन्त्र की सार्वदेशिकता एवं चिरकालिकता की तुलना में ये पद्धतियाँ एकदेशीय एवं अल्पकालिक सिद्ध हुईं। वस्तुत: पाणिनि शब्दानुशासन का जो राजमार्ग बनाया उसमें अन्य पद्धतियाँ एक सम्पर्क मार्ग के रूप में तो जुड़ी किन्तु कोई समानान्तर मार्ग बनाने में सफल नहीं हो सकी। पाणिनीय परम्परा से इतर व्याकरण ग्रन्थों का पठन-पाठन लगभग नगण्य है जबकि इसके विपरीत पाणिनि एवं उनकी परम्परा में आने वाले अन्य वैयाकरणों की कृतियों का पठन-पाठन न केवल भारत में अपितु पूरे विश्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525026
Book TitleSramana 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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