________________
श्रमण/अप्रैल-जून/ १९९६
मूर्च्छित हो जाता है, प्रिया के विश्वासघात से उसके कोमल हृदय को चोट लगती है, सब कुछ त्याग कर वह जैन श्रमण बन जाता है। समाज में सम्भवतः वैश्य वर्ग का स्थान ऊँचा उठाने के लिये धम्मिल चरित्र को उभारा हो गया है। वह सार्थवाह होकर भी राजसी ठाटबाट से रहता है, अनेकों कन्याओं से विवाह रचाता है, वह क्षत्रियों की तरह वीरता का प्रदर्शन करता है, इहलौकिक कर्त्तव्यों को निभाता हुआ निःश्रेयस की प्राप्ति के लिये श्रमणत्व अंगीकार कर लेता है। नारी के हृदय के चित्रों का रूप रंग भली-भाँति निखारा गया है। नारी का माधुर्य, शोभा, लज्जा, ईर्ष्या, गाढ़ानुराग, मनोवैज्ञानिक और स्वाभाविक है । वह दयालु, नीतिज्ञ, वक्ता, चतुर और विदुषी है। स्फटिक के समान स्वच्छ हृदय वाली और शील के आभूषणों वाली नारियों के भी उल्लेख हुए हैं। सोमश्री, प्रभावती, गन्धर्वदत्ता, अनिलयशा, धनश्री रूप लावण्य आदि नारी के समस्त गुणों से भूषित आदर्श नायिकायें हैं जिन्होंने अपनी कष्ट-सहिष्णुता, मर्यादा, शील एवं धैर्य से पत्नी की गरिमा को उजागर किया है । सपत्नी सुलभ ईर्ष्या के साथ-साथ स्त्री सुलभ दया का भी चित्रण हुआ है। पात्रों में स्वभावानुकूल उनके जीवन का विकास दीखता है।
३२
:
सोमश्री वेदवेदांगों को जानने वाली अनन्य रूपवती है। पति की अनुपस्थिति में वह तपस्विनी सा जीवन बिताती है। पति को कष्ट में जानकर शत्रु से पति के जीवन की भीख माँगती है, वैवाहिक जीवन में खलल डालने वाले के लिये उसके अंगों से बहता खून देखने की प्रतिज्ञा करती है। प्रभावती सुन्दरता की प्रतिमूर्ति है, उसका सौन्दर्य विद्युत सा था। उसे देखते ही वसुदेव को तिलोत्तमा, रम्भा, . उर्वशी और चित्रा का शक होने लगता है। वह उच्च चरित्र वाली है, अपनी सखी से विश्वासघात नहीं करना चाहती, नैतिक नियमों का पालन करने वाली है, गुरुजनों के द्वारा विधिवत विवाह संस्कार में दिये जाने के बिना वह वसुदेव से यौन सम्बन्ध करने से इंकार कर देती है। वह दयालु है, सोमश्री को दुःखी देखकर उसकी सहायता के लिये तत्पर हो जाती है, वह वसुदेव को उसके पास लेकर आती है, उसके लिये आमोद-प्रमोद के सब साधन जुटाती है। वसुदेव पर विपत्ति आई जान अपनी विद्याओं और जान की भी परवाह न कर वह वसुदेव को बचाती है। पति से सच्चा प्यार करने वाली है, वसुदेव का कटा सिर देखकर हृदयविदारक विलाप करती है | पति के कुशल क्षेम का समाचार देने वाले की दासी बनने के लिये तैयार हो जाती है। पतिव्रत धर्म में सराबोर अनिलयशा को अपनी विद्याओं के भ्रष्ट होने का भी दुःख नहीं था, पति को जीवित रखने के लिये वह फल-फूल खाकर तपस्विनी का जीवन जीने में भी सुख मानती है। वसुदेव को अपने पिता की कैद से छुड़ाने के लिये वह छल-कपट का भी सहारा ले लेती है। उसमें उच्चकुल में पैदा होने का अभिमान भी है। वह अपने से छोटे कुल की मातंग कन्या से विद्यायें नहीं सीखना चाहती। नारी सुलभ ईर्ष्या भी है उसमें, वसुदेव को वैडूर्यमाला के साथ मद्य पीते हुये देखकर नागकन्या की तरह फुंफकारने लगती है। सपत्नियों के आपसी हास-विलास, नारीसुलभ ईर्ष्या के अनेक उदाहरण मिलते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org