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________________ ६६ : अमण/अक्टूबर दिसम्बर/१९९५ नाटक - मध्यकालीन जैन सट्टक-नाटक, सम्पादक एवं अनुवादक - प्रो० डॉ० राजाराम जैन एवं डॉ० (श्रीमती ) विद्यावती जैन, प्रकाशक - प्राच्य श्रमण भारती प्रकाशन, रफीगंज ( औरंगाबाद ) बिहार, संस्करण - प्रथम १९९२, आकार - डिमाई, मूल्य - चौबीस रुपये। ___ मध्यकालीन जैन सट्टक-नाटक' एक संग्रह-ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में सुप्रसिद्ध जैन नाटककार हस्तिमल्ल के प्रमुख नाटकों एवं कवि नयचन्द्रसूरि कृत 'रम्भामञ्जरी' नामक सट्टक के महत्त्वपूर्ण अंकों का संकलन है। इसे संकलित कर लेखक ने छात्रोपयोगी ही नहीं बनाया अपितु उपेक्षित जैन नाटक-साहित्य की महत्ता, मूल्यांकन तथा अन्वेषण की दिशा में सम्पूर्ण विद्वज्जगत् को प्रेरित करने का उपक्रम भी किया। विश्व वाङ्मय में प्राकृत भाषाओं के अध्ययन और उनकी व्यापकता की दृष्टि से महाकवि हस्तिमल्ल के नाटक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें संस्कृत के साथ प्राकृत भाषाओं का अनुपम सम्मिश्रण है। इसमें प्राचीन प्राकृतों के लुप्तप्राय अनेक शब्द सुरक्षित हैं। तत्कालीन सामान्य जनता की बोलचाल की भाषा के रूप में प्राकृत दीर्घकाल तक लोकप्रिय रही, अतएव स्वाभाविक रूप से प्राचीन संस्कृत नाटकों में प्राकृत भाषा एवं उसके पात्रों की बहुलता है। साथ ही साथ पात्रों की योग्यता के अनुरूप प्राकृत-भाषा में भी भिन्नता को दर्शाया गया है। डॉ० जैन के शोधपूर्ण कार्य से अब तक उपेक्षित किन्तु महत्त्वपूर्ण नाट्य साहित्य के प्रचार-प्रसार के साथ ही संस्कृत-प्राकृत के विभिन्न पाठ्यक्रमों में इनके समायोजन में सुविधा रहेगी। अतएव डॉ. जैन धन्यवाद के पात्र हैं। पुस्तक छात्रोपयोगी होने से पठनीय एवं संग्रहणीय है। पुस्तक - महावीर रास, सम्पादक-अनुवादक - डॉ० ( श्रीमती ) विद्यावती जैन, प्रकाशक - प्राच्य श्रमण भारती प्रकाशन, गया (बिहार ), प्रथम संस्करण - १९९४, आकार – डिमाई, मूल्य - ८० रुपये। महाकवि पद्म द्वारा रचित महावीररास नामक पुस्तक में जिन धर्म के श्रेष्ठ चरित्र का गान है। इसमें कवि ने सर्वप्रथम भारती से वर्धमान स्वामी के चरित्र का वर्णन करने के लिए प्रार्थना की है तदुपरान्त उनका चरित्र-चित्रण किया है। कवि की वर्णन शैली में कुछ मौलिक विशेषताएँ हैं। इसकी कथा आद्योपान्त प्रवाहमयी तो है ही साथ ही वह अत्यन्त सरस, रोचक, मार्मिक एवं श्रोता को भाव-विभोर कर देने वाली भी है। कवि अनेक प्रसंगों में अपने कथन के समर्थन में लौकिक उदाहरण प्रस्तुत कर उसे अत्यन्त स्पष्ट एवं हृदयग्राह्य बना देता है। इसमें समाजोपयोगी उपदेश भी हैं। इन उपदेशों को पढ़कर एवं समझकर पाठक महावीर जी की वाणी का सम्यक् पालन कर सकता है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक है। सम्पादन कार्य अच्छे ढंग से किया गया है। मुद्रण निर्दोष एवं भाषा सरल है। पुस्तक संग्रहणीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525024
Book TitleSramana 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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