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________________ ६५ : ब्रमण/अक्टूब-दिसम्बर/१९९५ के साथ तुलना की गई है। तृतीय प्रकरण में सांख्य-योग में ज्ञान और दर्शन के स्वरूप का विवेचन एवं चौथे प्रकरण में इन युग्म दर्शनों में श्रद्धानरूप दर्शन की व्याख्या की गई है। पंचम और अन्तिम प्रकरण में बौद्ध दर्शन एवं न्याय-वैशेषिक दर्शन में ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा का समकालीन सिद्धान्तों के सन्दर्भ में विस्तृत विवेचन किया गया है। लेखिका की यह कृति एक महत्त्वपूर्ण कृति है क्योंकि सांख्य-योग और जैन सम्मत ज्ञान और दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन प्रथम बार इस ग्रन्थ में किया गया है। जैन दर्शन में ज्ञान और दर्शन की अवधारणा को समझने के लिए, सांख्य-योग की एतद्सम्बन्धी अवधारणा कहाँ तक सहायक है, इसकी सम्यक् विवेचना इस ग्रन्थ में की गई है। साथ ही यह ग्रन्थ कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रकाश डालती है जो कम से कम ज्ञान और दर्शन की अवधारणा के सम्बन्ध में अभी तक उपेक्षित थे। कृति संग्रहणीय और उत्तम है तथा विशेषकर शोधार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। पुस्तक - आरामसोहाकथा (आरामशोभाकथा), लेखक - आचार्य संघतिलकसूरि, सम्पादन एवं अनुवाद - डॉ० राजाराम जैन एवं डॉ० ( श्रीमती) विद्यावती जैन, प्रकाशक - प्राच्य भारती प्रकाशन, आरा, प्रथम संस्करण - फरवरी सन् १९८९, आकार - क्राउन सोलह पेजी, मूल्य – सोलह रुपये। आरामशोभाकथा में एक विप्र-कन्या की कथा है, जिसके बचपन का नाम विद्युत्प्रभा है। वह विद्युत के समान कान्ति एवं सर्वगुणसम्पन्न है। बचपन में उसकी माता की मृत्यु के कारण उसकी विमाता ( सौतेली माँ ) उसके साथ सद्व्यवहार नहीं करती जिससे उसे गृहस्थी के सभी कार्य करने होते हैं। एक दिन उसने जंगल में एक नागकुमार की प्राणरक्षा की जिसके फलस्वरूप उसने उससे वर माँगने को कहा। विद्युत्प्रभा ने वृक्षहीन स्थान पर वृक्षोत्पत्ति का वर माँगा। उसने वहाँ पर छहों ऋतुओं के फल पौधे उत्पन्न कर दिये जो विद्युत्प्रभा के साथ चलते थे, इसके अतिरिक्त उसने वर दिया - “तुम जब भी मुसीबत में पड़ो मुझे याद करना"। इस आराम ( वाटिका ) के प्रभाव से उसका विवाह पाटलिपुत्रनरेश जितशत्रु से हुआ और उसका नाम आरामशोभा पड़ा गया। बाद में मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर वह आत्मकल्याण में प्रवृत्त हो गयी। . इस कथा के माध्यम से लेखक ने आरामशोभा को एक सुयोग्य एवं साहसी कन्या, धैर्य एवं क्षमायुक्त गृहिणी और पूर्ण वात्सल्यमयी माँ होने के गुणों के साथ-साथ धर्मपरायणता, सहिष्णुता, पूर्ण उदार हृदय एवं संसार के वैभव से विचलित न होने वाली गुणी स्त्री के रूप में वर्णित किया है। कथा रोचक एवं उपदेशपूर्ण होने से पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है। इसके सुन्दर सम्पादन एवं अनुवाद के लिए सम्पादक एवं अनुवादक बधाई के पात्र हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525024
Book TitleSramana 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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