SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ : श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर / १९९५ संकीर्ण कथा का निरूपण होता है। इस कथा में धर्म, अर्थ और काम इन तीनों प्रकार की कथाओं हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन में कथाओं के बारह भेद बतलाये हैं - १. आख्यायिका, २. कथा, ३ . आख्यान, ४. निदर्शन, ५. प्रहल्लिका, ६ . मन्थल्लिका, ७. मणिकुल्या, ८. परिकथा, ९. खण्डकथा, १०. सकलकथा, ११. उपकथा, १२. बृहत्कथा १८ जैन साहित्य के प्रारम्भिक काल में कथाओं के कथावस्तु, चौबीस तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, राम, कृष्ण आदि पुराणपुरुषों का जीवन चरित्र ही होता था पर आलोच्य काल में श्रमण, श्रावक, राजा, सेनापति, सार्थवाह, वणिक, धूर्त, ठग, चोर, वेश्या आदि साधारण जनों का चरित्र भी चित्रित किया जाने लगा था। जैन आचार्य जहाँ भी जाते थे वहाँ के लोकजीवन और रीति-रिवाजों का सूक्ष्म अध्ययन करते थे और उनको अपने ग्रन्थों में गुम्फित करते थे । उसके साथ ही उनका मुख्य उद्देश्य तो जैन- परम्परा के आचारों विचारों को रोचक शैली में प्रस्तुत कर जनसाधारण की धार्मिक चेतना और भक्ति-भावना को जगाना था जिसके लिये जैन आचार्यों ने युग की माँग को देखते हुये अपनी धर्मकथाओं में भी श्रृंगाररस से परिपूर्ण प्रेमाख्यानों का समावेश करके अपनी रचनायें शृंगारयुक्त प्रभावोत्पादक ललित शैली में लिखना आरम्भ किया । वसुदेवहिंडी के मध्यम खण्ड में धर्मसेनगणि महत्तर कहते हैं कि लोग नहुष, नल, धुंधुमार, निहस, पुरुरव, मान्धाता, राम, रावण, जनमेजय, कौरव, पाण्डव, नरवाहनदत्त आदि की लौकिक कथाओं को सुनकर इतना रस लेते हैं कि धर्मकथाओं को सुनने की इच्छा ही नहीं होती। ऐसे ही जैसे ज्वर पित्त के कारण हुये कडुवे मुख वाले रोगी को गुड़ शक्कर भी कडुवे लगने लगते हैं, ऐसी दशा में जैसे कोई चतुर वैद्य अमृतरूप औषधपान से पराङ्मुख रोगी को मिठास मिश्रित करके अपनी औषधि पिला देता है, उसी प्रकार कामकथा में रत पाठकों के मनोरंजन के लिये शृंगार कथा के बहाने धर्मकथा सुनानी चाहिए।" वास्तव में देखा जाय तो भारतीय साहित्य में ऐसे बहुत कम ग्रन्थ हैं जिनमें जीवन के विनोद तथा भोग को इतनी अधिक प्रमुखता दी गई है। वसुदेवहिंडी एक श्रृंगारप्रधान कथा है जिसमें मानव-जीवन का बड़ा वास्तविक मनोरम चित्रण किया गया है। धर्मकथा होने पर भी इसमें चोर, विटप, वेश्या, धूर्त, ठग आदि का चित्रण बड़ी सफलता से किया गया है। पशु पक्षियों और पिशाचों की कौतूहलवर्धक कथाओं के ऐसे जाल हैं जो पाठकों को तत्कालीन लोकसंस्कृति का जीवन्त दर्शन कराते हैं। आगम बाह्य कथा साहित्य में संघदासगणि की वसुदेवहिंडी का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा, कला- चेतना और सारस्वत श्रम के विनियोग से इसे पल्लवित कर अपनी मौलिक प्राणवाहिनी धारा से इसे गतिशील बनाया है। आचार्य लोकजीवन को आन्दोलित करने वाले कीर्तिपुरुष थे । आत्मख्याति के प्रति उदासीन होने के कारण उन्होंने अपनी रचना में अपने जन्म-स्थान, जन्म तिथि, माता-पिता, कुल-जाति एवं कौटुम्बिक जीवन के विषय में कोई सूचना नहीं दी । ग्रन्थ की अनेक उक्तियों से सूचित होता है कि लेखक ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525024
Book TitleSramana 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy