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________________ ५७ : श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर / १९९५ अपने ग्रन्थ का प्रणयन जिनेन्द्र भक्ति तथा लोक में जिन धर्म के प्रचार के लिये किया है, लेकिन इतना निश्चित है कि वे उत्तम कथाकार थे, कथा-वर्णन शैली में निष्णात थे । ग्रन्थ के आरम्भ में अपनी रचना को उन्होंने गुरु- परम्परागत संग्रह रचना कहा है तथा सिद्ध किया है कि प्रथमानुयोग में वर्णित तीर्थङ्कर चक्रवर्ती और दशार्हवंश के राजाओं के चरित्र के अनुसार सुधर्मास्वामी ने यह चरित्र अपने शिष्य जम्बूस्वामी को सुनाया था। २० जैन साहित्य में संघदासगणि नामक दो आचार्यों का उल्लेख हुआ है – एक, वसुदेवहिंडी प्रथम खंड के प्रणेता जो वाचक पद से विभूषित थे, दूसरे बृहत्कल्प भाष्य के रचनाकार क्षमाश्रमण पद से अलंकृत थे। मुनि श्री पुण्यविजयजी के मतानुसार यह दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे क्योंकि एक वाचक पद से विभूषित थे दूसरे क्षमाश्रमणपद से विभूषित थे ।" इसका निराकरण करते हुये कुछ विद्वानों ने कहा है कि एक ही व्यक्ति विविध समय में विविध पदवियाँ धारण कर सकता है अतः निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इन पदवियों को धारण करने वाले व्यक्ति भिन्न-भिन्न थे। इन आचार्यों को भिन्न-भिन्न सिद्ध करने के लिये मुनि जी ने जो दूसरा प्रमाण प्रस्तुत किया वह बड़ा महत्त्वपूर्ण है। आचार्य जिनभद्रगणि ने अपने ग्रन्थ विशेषणवती में वसुदेवहिंडी का कई बार उल्लेख किया है जो यह सिद्ध करता है कि वसुदेवहिंडी के कर्ता जिनभद्रगणि के पूर्ववर्ती थे और उस समय तक काफी प्रसिद्धि पा चुके थे ।२२ दोनों ग्रन्थों की भाषा-शैली का भी यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो दोनों ग्रन्थकारों के विभिन्न व्यक्ति होने की पुष्टि होती है । वसुदेवहिंडी दो खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड के कर्ता संघदासगण और द्वितीय खण्ड के कर्ता धर्मसेनगणि माने जाते हैं। मध्यमखण्ड की रचना धर्मसेन ने दो शताब्दी बाद अपने पूर्ववर्ती संघदासगणि की रचना को आगे बढ़ाते हुये की थी। अपनी कृति की भूमिका में वह कहते हैं कि वसुदेव ने १०० वर्ष तक भ्रमण करके अनेक विद्याधर और मानव राजाओं की कन्याओं से १०० विवाह किये थे। संघदासगणि ने केवल २१ विवाहों का ही वर्णन किया है। शेष ७१ विवाहों का वर्णन उन्होंने विस्तार के भय से छोड़ दिया था। उन्हें मध्यम लम्बकों के साथ मिलाते हुये मैं कह रहा हूँ। धर्मसेनगणि ने मध्यमखण्ड में इस अपूर्ण कृति को पूर्ण करने के लिये ७१ लम्बों की रचना की। अपनी रचना को उन्होंने १८वें और २१ वें लम्ब के मध्य प्रभावती लम्ब से शुरू किया है। प्रथमखण्ड में प्रभावती की कथा इतनी संक्षिप्त है कि वह अपूर्ण सी लगती है। धर्मसेन ने इसे विस्तृत रूप देकर इस कमी को पूर्ण किया है । संघदासगणि की रचना में उपसंहार नहीं है । धर्मसेनगणि ने उपसंहार में सोमश्री और वसुदेव का पुनर्मिलन दिखाकर इस कृति को पूर्ण किया है। दुर्भाग्य से धर्मसेनगणि के जीवन और काल के विषय में भी कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। आचार्य ने अपनी कृति को पूर्व परम्परा से प्राप्त कहा है । २३ वसुदेवहिण्डी प्रथमखण्ड के रचनाकार संघदासगणि का समय अनुमानत: ईसा की तृतीय या चतुर्थ शताब्दी माना गया है। आवश्यकचूर्णि में वसुदेवहिण्डी का उल्लेख हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि ६०० ईस्वी सन् के पहले इसकी रचना हो चुकी थी । भाषा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525024
Book TitleSramana 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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