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________________ ५५ : श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर /१९९५ मान, माया और लोभ आदि मानवीय विकृतियों के दुष्परिणामों को बताने वाली कथायें । दशवैकालिक में धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थों का निरूपण करने वाली कथा को मिश्र कथा कहा गया है। हरिभद्र ने लौकिक और धार्मिक रूप से प्रसिद्ध उदाहरण हेतु और कारण से युक्त कथाओं को मिश्र अथवा संकीर्ण कथा कहा है। अनुभूतियों की पूर्णत: अभिव्यक्ति की क्षमता संकीर्ण या मिश्र कथा में ही रहती है। जीवन की सभी सम्भावनाएँ, रहस्य एवं सौन्दर्य - प्रधान उपकरणों की उपस्थिति मिश्र कथाओं में ही रहती है। सभी प्राकृत कथाकारों ने संकीर्ण कथा के महत्त्व को स्वीकार किया है। समराइच्चकहा में पात्रों के आधार पर दिव्यकथा, मानुषकथा तथा दिव्य मानुषकथा तीन भेद किये गये हैं । ५ दिव्य कथा इस कथा में दिव्य व्यक्तियों के क्रिया-कलापों से कथावस्तु का निर्माण किया जाता है। मनोरंजन और कौतूहल तत्त्व की सघनता, शृंगारादि रसों की निबद्धता एवं शैली की स्वच्छता दिव्य कथाओं के मुख्य गुण माने जाते हैं। वर्णन कौशल और कथोपकथन की कला से प्रस्फुटित होने पर भी इन कथाओं में स्वाभाविकता का अभाव पाया जाता है । ६ मानुष कथा . इस कथा के पात्रों में पूर्ण मानवता सन्निविष्ट रहती है। कथा के पात्र सजीव और क्रियाशील होते हैं। परिहास कथा एवं दिव्य मानुषी कथा- इस कथा में कथा जाल सघन और कलात्मक होता है । चरित्र घटना आदि विभिन्न परिस्थितियों के विशद और मार्मिक चित्रण होते हैं। साहसपूर्ण यात्रायें, नायकनायिकाओं के विभिन्न प्रकार के प्रेमाकर्षण एवं सौन्दर्य के विभिन्न रूप दिव्य मानुषी कथा में पाये जाते हैं। कौतूहल कवि में लीलावई कथा को दिव्य मानुषी कथा कहा है ।१७ उद्योतनसूरि ने शैली के आधार पर कथाओं के पाँच भेद किये हैं। - १. सकल कथा, २. खण्ड कथा, ३. उल्लाव कथा, ४. ५. संकीर्ण कथा । सकल कथा • इस कथा में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों का वर्णन पाया जाता है। इस कथा के अन्त में सभी प्रकार के अभीष्ट की प्राप्ति होती है। खण्ड कथा - इसकी कथावस्तु छोटी होती है। यह जीवन के लघु चित्र ही उपस्थित करती है। 真 उल्लाव कथा - साहसपूर्ण की गई यात्रायें या साहसपूर्ण किये गये प्रणय- व्यापारों के उल्लेख के साथ-साथ धर्म-चर्चा का उल्लेख भी किया जाता है। परिहास कथा - मनोरंजन के लिये कही गई हास्यपूर्ण अथवा व्यंगात्मक कथायें । ऐसी कथाओं में अन्य तत्त्वों का अभाव रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525024
Book TitleSramana 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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