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________________ ९६ : श्रमण/जुलाई/सितम्बर/१९९५ आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी का पत्र अध्यक्ष के नाम दिनांक २५/५/६५ श्रीयुत धर्मप्रेमी सुश्रावक लाला नेमिनाथ जी जैन ! अध्यक्ष, श्री पार्श्वनाथ शोध संस्थान महामहिम स्वर्गीय आचार्य सम्राट आत्मारामजी म० के दीक्षा शताब्दी वर्ष को मनाने का सौभाग्य हमें सम्प्राप्त हुआ। आचार्य सम्राट युगपुरुष थे। उनका समग्र जीवन जनचेतना के अभ्युत्थान के लिये व्यतीत हुआ। वे श्रमण संघ के सार्वभौम सत्ताप्राप्त आचार्य थे। पर सत्ता की लिप्सा उनके अन्तर्मन को छू न सकी। वे एक महकते हुए गुलाब की तरह थे। जो उन्मुक्त भाव से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सुरभि बाँटते रहे, वे एक ज्योतिर्मय प्रकाशपुंज थे, उनका आलोकमय जीवन समाज के लिये वरदान रूप था। यही कारण है कि सादड़ी सन्त सम्मेलन में समस्त संघ ने आप को श्रमण संघ के आचार्य पद पर निर्वाचित किया। जीवन की सान्ध्य बेला तक श्रमण संघ के निष्ठा, भक्ति और श्रद्धा के केन्द्र बने रहे, यह आप की लोकप्रियता का प्रबल प्रमाण है। आप श्री का अध्ययन बहुत ही गम्भीर एवं विशाल था। प्रखर प्रतिभा और अप्रतिहत मेधा के बल पर आपने जो पाण्डित्य अधिगत किया वह हम सभी के लिये गौरव की वस्तु है। आपकी श्रुत सेवा और संघ सेवा सभी के लिये प्रेरणास्रोत रही, हजारों-हजार लोगों ने, आपके साहित्य और जीवन से प्रेरणा एवं स्फूर्ति प्राप्त की थी। वे ज्ञान के सागर और शान्ति के अग्रदूत थे। वे प्रज्ञापुरुष थे। उनकी लेखनी में ज्ञान की गम्भीरता के साथ अनुभव की सहजता थी और थी विषय की विशदता और भाषा की सहज सुबोधता। उस स्थितप्रज्ञ प्रज्ञाप्रदीप महागुरु की दीक्षा शताब्दी वर्ष मनाने का हमें सुअवसर प्राप्त हुआ। श्रमण संघ ने इस शताब्दी वर्ष का शुभारम्भ आचार्य सम्राट की पावन पुण्यभूमि लुधियाना में किया। उस समय मेरे अन्तर्मानस में एक विचार तरंगित हो रहा था कि आचार्य प्रवर की पावन पुण्यधरा पंजाब में बूचड़खाना सदा के लिए बन्द हो जाय तो लाखों-करोड़ों जीवों को अभयदान मिलेगा। आचार्य सम्राट की असीम कृपा से पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार बेअन्त सिंह जी ने अपने सहयोगियों के परामर्श से इस कार्य को सदा-सदा के लिए बन्द कर, उस महागुरु के प्रति अपनी अनन्त श्रद्धा समर्पित की। समाज सदा-सदा के लिये उनका आभारी है। दूसरी मेरी यह हार्दिक भव्य भावना थी कि आचार्य सम्राट ज्ञानयोगी थे। उनका सम्पूर्ण जीवन ज्ञानमय था, जो सदा ही अज्ञान के अन्धकार को दूर करता रहा, इसलिये ज्ञान की अखण्ड-ज्योति को प्रज्वलित करने के लिये "जैन विश्वविद्यालय की स्थापना हो जाय तो कितना श्रेयस्कर हो। उस महागुरु ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525023
Book TitleSramana 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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