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अर्धमागधी भाषा में सम्बोधन का एक विस्मृत शब्द-प्रयोग : ६९
और 'आउसन्ते' सम्बोधन के लिए। जैसे 'आउसो' और 'आउसन्तो' शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृतों के प्रथमा एकवचन के रूप हैं उसी प्रकार 'आउसन्ते' मागधी प्राकृत का प्रथमा एकवचन का रूप है और ये सब रूप सम्बोधन के लिए भी प्रयुक्त हुए हैं। भगवान की देशना मगध देश में हुई थी अतः 'आउसन्ते' शब्द ही उपयुक्त होना चाहिए था। इस विषय में एक नवीन प्रमाण सूत्रकृतांग की चूर्णि में प्राप्त हो रहा है।
सूत्रकृतांग की चूर्णि में एक जगह सम्बोधन के लिए 'आउसे' शब्द का प्रयोग मिलता है जो प्राकृत 'आउसो' का मागधी 'आउसे' रूप है। सूत्रकृतांग की मूल गाथा इस प्रकार है
उदाहडं तं तु समं मनीए
अहाउसो विप्परियासमेव ( २. ६. ५१ म० जै० वि०) परन्तु चूर्णिपाठ इस प्रकार है – 'अधाउसे विपरियासमेव' । चूर्णिकार आगे समझाते हैं 'आउसे' त्ति 'हे आयुष्मन्तः' (सूत्रकृ०, पृ० २३२, पा० टि० ४)।
भाषिक दृष्टि से 'अधाउसे' पाठ प्राचीन है जो किसी न किसी तरह चूर्णि में बच गया है। कालान्तर में 'अध' का 'अह' हो गया और 'आउसे' का 'आउसो' कर दिया गया जो उत्तरवर्ती काल की महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव के कारण हुआ है।
अत्, वत् और मत् अन्त वाले शब्द प्राकृत में अन्त, वन्त और मन्त वाले बन जाते हैं। उसी नियम से 'आयुष्मत्' का 'आयुष्मन्त = आउस्सन्त = आउसन्त' हुआ और सम्बोधन का मागधी-अर्धमागधी रूप 'आउसन्ते' बना और उसी का संकुचित रूप 'आउसे' हुआ जैसा कि पालि भाषा में 'आवुसो' शब्द 'आयुस्मन्तो' का संकीर्ण रूप है।
इस अन्वेषण के आधार पर आचारांग का उपोद्धात का वाक्य इस प्रकार होगा।
"सुते मे आउसन्ते। णं। भगवता एवमक्खातं" और अन्य आगम-ग्रन्थों में भी इसी प्रकार का माना जाना चाहिए। सम्बोधन के लिए जिस प्रकार भन्ते' (भदन्त या भगवन्त का ) रूप है उसी प्रकार ( आयुष्मन्त का मागधी-अर्धमागधी रूप) 'आउसन्ते' रूप भी उपयुक्त है।
* प्राचीन अर्धमागधी की खोज नामक मेरी : पुस्तक में 'आउसन्तेण' रूप उपयुक्त है, ऐसा
समझाया गया है परन्तु यह नवीन प्रमाण मिल जाने से 'आउसे' और 'आउसन्ते' प्रयोग ही भाषिक दृष्टि से अर्धमागधी के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं जिनके कारण अर्थ-सम्बन्धी बाधा नहीं रहती है और न ही कोई कल्पना करने की आवश्यकता रहती है।
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