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________________ ६८ : श्रमण जुलाई-सितम्बर/१९९५ आउसंतो) बहुवचन है और उसी का 'आवुसो' संकीर्ण रूप है। ये सामान्यतः भिक्षुओं के लिए प्रयुक्त सम्बोधन के शब्द हैं ( vide - Pali-English Dictionery by T. W. Rhys Davids ) परन्तु अर्धमागधी भाषा में भिक्षु या गृहस्थ दोनों के लिए ये शब्द समान रूप में प्रयुक्त हैं। अब हस्तप्रतों में मिल रहे पाठों को उसी शैली में यहाँ उद्धत करते हैं और फिर उनका शब्द-विच्छेद करके समझने की कोशिश करते हैं कि अर्धमागधी भाषा में सम्बोधन के लिए कौन सा रूप उपयुक्त होगा, हस्तप्रतों के पाठ - सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं। सुतं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खातं । सुयं, ( सुतं) शब्द-विच्छेद :- सुयं सुतं मे आउसंतेणं, ( आउसं तेणं, आउसंते णं ), भगवया ( भगवता ) एवं अक्खायं ( अक्खातं )। यदि 'आउसं तेणं' पाठ रखते हैं तो 'तेणं' शब्द भगवान का विशेषण बन जाता है । अर्थ होगा 'उस भगवान के द्वारा' | सुधर्मा स्वामी तो प्रत्यक्ष गणधर थे और उनके द्वारा प्रत्यक्ष गुरु के लिए ऐसे विशेषण का प्रयोग करना यथार्थ नहीं लगता है। . 'आउसंतेणं' एक साथ लेने पर यह शब्द भगवान का विशेषण बनेगा, यह भी उपयुक्त नहीं लगता है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार 'आउसंतेणं' का अर्थ 'आवसता' करके उसे सुधर्मास्वामी के साथ जोड़कर 'मया आवसता' अर्थात् भगवान की पर्युपासना में रहते हुए मेरे द्वारा ऐसा सुना गया था, मेरे द्वारा पर्युपासना करते हुए ऐसा सुना गया। सुधर्मास्वामी को 'मया आवसता' ऐसे शब्द के प्रयोग की आवश्यकता हुई हो यह भी उपयुक्त नहीं ठहरता है। सारी परम्परा सुज्ञात है कि सुधर्मास्वामी भगवान महावीर के गणधर (शिष्य) थे और उन्होंने ही जम्बूस्वामी को भगवान महावीर के उपदेशों का पाठ मौखिक रूप में हस्तान्तरित किया था। सुधर्मास्वामी ने भगवान से जो कुछ सुना होगा वह उनके पास रहते हुए ही तो सुना होगा अन्यथा कैसे सुन सके होंगे। अतः 'आउसंतेणं' = 'मया आवसता' की भी यथार्थता साबित नहीं होती है। भाषिक दृष्टि से भी 'आवस' का 'आउस' रूप योग्य नहीं लगता है। ऐसा लगता है कि विस्मृत प्रयोग को खींचतान करके समझाने के लिए 'आउस' का 'आवस कर दिया गया है। तब फिर क्या शब्द-विच्छेद इस प्रकार नहीं किया जा सकता कि 'आउसंते' और 'णं' दोनो ही अलग-अलग शब्द हैं | ‘णं' वाक्यालंकार के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525023
Book TitleSramana 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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