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अर्धमागधी भाषा में सम्बोधन का एक विस्मृत शब्द-प्रयोग ‘आउसन्ते'
के० आर० चन्द्र आचार्य श्री हेमचन्द्र अपने प्राकृत व्याकरण में शौरसेनी प्राकृत के अन्तर्गत समझाते हैं
'णं नन्यर्थे', ८/४/२८३( ननु = णं) - 'शेषं शौरसेनीवत्' के अनुसार मागधी प्राकृत के लिए भी यही नियम लागू होता है (८/४/३०२ )।
वे पुनः कहते हैं'आर्षे वाक्यालंकारेऽपि दृश्यते', उदाहरण- 'नमोत्थु णं' उत्तराध्ययन ( २६-११०५ आदि, आदि सूत्रों में भी ) में एक प्रयोग है
'धम्मसद्धाए णं भन्ते' इस उदाहरण में 'ण' और 'भन्ते' दोनों शब्द ध्यान देने योग्य हैं।
आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक सूत्र जैसे प्राचीन अर्धमागधी प्राकृत ग्रंथों में सम्बोधन के लिए 'आयुष्मत्' शब्द के जो प्राकृत मिलते हैं उनमें 'ण' को विभक्ति प्रत्यय का अंश माना जाय या उसे एक अव्यय के रूप में लिया जाय, यही इस लेख की चर्चा एवं अन्वेषण का विषय है।
ग्रंथों में वाक्यरचना इस प्रकार है- ( म० जै० वि० संस्करण ) (i) 'सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं'
(आचा० २/६३५, सूत्रकृ०२/६३८/६६४/७२२/७४७) (ii) सुयं मे आउसं तेणं भगवया एव मक्खाय' (आचा० १/१/१/१, उत्तरा० २/४६, १६/५०१, २६/११०१,
दशवै० ४/३२, ६/४/५०७ ) यहाँ पर ध्यान में रखने का जो विशेष मुद्दा है वह यह कि 'आउसं' के साथ 'तेणं' का प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं पर 'आउसं' एवं 'तेणं' अलग-अलग हैं तो कहीं-कहीं पर दोनों एक ही शब्द के रूप में प्रयुक्त हैं। इन दोनों प्रकार के प्रयोगों के अर्थ की चर्चा आगे की जाएगी।
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