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________________ नागेन्द्रगच्छ का इतिहास : ५९ मल्लिषेणसूरि ये वर्धमानसूरि के प्रशिष्य और उदयप्रभसूरि के शिष्य थे। इन्होंने आचार्य हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका नामक कृति पर संस्कृत भाषा में वि० सं० १३४८/ई० सन् १२६३ में स्याद्वादमंजरी नामक टीका की रचना की, जिसका संशोधन ( खरतरगच्छीय )आचार्य जिनप्रभसूरि ने किया। पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह के अनुसार इन्होंने दिगम्बराचार्य जिनसेन के शिष्य मल्लिषेण द्वारा रचित भैरवपद्मावतीकल्प का भी संशोधन किया । लेकिन दिगम्बराचार्य मल्लिषेण द्वारा रचित त्रिशष्टिमहापुराण या महापुराण नामक एक अन्य कृति भी मिलती है जो वि० सं० ११०४/शक सं० ६६८ में रची गयी है । अतः इनका काल विक्रम संवत् की ११वीं शती का अन्त और १२वीं शती का प्रारम्भ सुनिश्चित है। साथ ही उक्त आचार्य कर्णाटक के थे, गुजरात के नहीं । इस आधार पर शाह जी का उपरोक्त मत भ्रामक सिद्ध होता है। स्याद्वादमंजरी की प्रशस्ति में इन्होंने अपने गच्छ की लम्बी गुर्वावली न देते हुए मात्र अपने गुरु उदयप्रभसूरि और ग्रन्थ के रचनाकाल का ही उल्लेख किया है। अतः वर्तमान युग के अनेक इतिहासकारों ने केवल गच्छ और नामसाम्य के आधार पर इनके गुरु उदयप्रभसूरि को वस्तुपाल-तेजपाल के गुरु विजयसेनसूरि के शिष्य उदयप्रभसूरि से अभिन्न मान लिया था, परन्तु अब उक्त धारणा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है७५ | मेरुतुंगसूरि ये नागेन्द्रगच्छीय चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य थे। इन्होंने वढवाण में रहते हुए वि० सं० १३६१/ई० सन् १३०५ में संस्कृत भाषा में प्रबन्धचिन्तामणि की रचना की। इस कार्य में उन्हें अपने शिष्य गुणचन्द्र गणि से सहायता प्राप्त हुई। सम्पूर्ण ग्रन्थ ५ प्रकाशों (खण्डों ) में विभाजित है। गुजरात के इतिहास का यह एक अपूर्व ग्रन्थ है। जिस प्रकार कल्हण ने राजतरंगिणी में काश्मीर का इतिहास लिखा है उसी प्रकार मेरुतुंग ने अपनी इस कृति में गुजरात के इतिहास का वर्णन किया है। इस ग्रन्थ में वि० सं० ८०२ से लेकर वि० सं० १२५० ( कुछ विद्वानों के अनुसार वि० सं० १२७७ ) तक की घटनाओं का तिथियुक्त वर्णन है किन्तु राजतरंगिणी की तुलना में इस ग्रन्थ में सबसे बड़ा दोष यह है कि लेखक ने अपने समय की घटनाओं का प्रत्यक्ष ज्ञान होते हुए भी उसे पूर्णरूपेण उपेक्षित कर दिया है। साथ ही इसमें विभिन्न राजाओं की दी गयी अधिकांश तिथियाँ प्रायः ठीक नहीं हैं फिर भी वे कुछ माह या वर्ष से अधिक अशुद्ध नहीं हैं। इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा विस्तृत चर्चा की जा चुकी है | श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई, ए० के० मजुमदार तथा कुछ अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525023
Book TitleSramana 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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