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________________ 56 : प्रो. सागरमल जैन विवर या दरार नहीं थी जिससे उसमें बन्द पुरुष का जीव बाहर निकला हो, अतः जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है । इसके प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया जिस प्रकार एक ऐसी कूटागारशाला जो अच्छी तरह से आच्छादित हो और उसका द्वार गुप्त हो यहाँ तक कि उसमें कुछ भी प्रवेश नहीं कर सके। यदि उस कूटागारशाला में कोई व्यक्ति जोर से भेरी जाये तो तुम बताओ कि वह आवाज बाहर सुनायी देगी कि नहीं ? निश्चय ही वह आवाज सुनायी देगी । अतः जिस प्रकार शब्द अप्रतिहत गति वाला है उसी प्रकार आत्मा भी अप्रतिहत गति वाला है, अतः उसे निकलने के लिए तुम यह श्रद्धा करो कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं । ज्ञातव्य है कि अब यह तर्क विज्ञान सम्मत नहीं रह गया है, यद्यपि आत्मा की अमूर्तता के आधार पर भी राजा के उपरोक्त तर्क का प्रति उत्तर दिया जा सकता है । केशिकुमार श्रमण के इस प्रति उत्तर को सुनकर राजा ने एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया- मैंने एक पुरुष को प्राण रहित करके एक लौह कुम्भी में गलवा दिया तथा ढक्कन से उसे बन्द करके उस पर शीशे का लेप करवा दिया। कुछ समय पश्चात् जब उस कुम्भी को खोला गया तो उसे कृमिकुल से व्याप्त देखा, किन्तु उसमें कोई दरार या छिद्र नहीं था जिससे उसमें जीव उत्पन्न हुए हों। अतः जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है। राजा के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने अग्नि से तपाये हुए गोले का उदाहरण दिया । जिस प्रकार लोहे के गोले में छेद नहीं होने पर भी अग्नि उसमें प्रवेश कर जाती है उसी प्रकार जीव भी अप्रतिहत गति वाला होने से कहीं भी प्रवेश कर जाता है। केशिकुमार श्रमण का यह प्रत्युत्तर सुनकर राजा ने पुनः एक नया तर्क प्रस्तुत किया। उसने कहा कि, मैंने एक व्यक्ति को जीवित रहते हुए और मरने के बाद दोनों ही दशाओं में तौला किन्तु दोनों के तौल में कोई अन्तर नहीं था । यदि मृत्यु के बाद आत्मा उसमें से निकला होता तो उसका वजन कुछ कम अवश्य होना चाहिए था । इसके प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने वायु से भरी हुई और वायु से रहित मशक का उदाहरण दिया और यह बताया कि जिस प्रकार वायु अगुरुलघु है उसी प्रकार जीव भी अगुरुलघु है । अतः तुम्हारा यह तर्क युक्ति संगत नहीं है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है। अब यह तर्क भी वैज्ञानिक दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं रह गया है क्योंकि वैज्ञानिक यह मानते हैं कि वायु में वजन होता है। दूसरे यह भी प्रयोग करके देखा गया है कि जीवित और मृत शरीर के वजन में अन्तर पाया जाता है। उस युग में सूक्ष्म तुला के अभाव के कारण यह अन्तर ज्ञात नहीं होता रहा होगा । राजा ने फिर एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया और कहा कि मैंने एक चोर के शरीर के विभिन्न अंगों को काट कर चीर कर देखा लेकिन मुझे कहीं भी जीव नहीं दिखाई दिया । अतः शरीर से पृथक् जीव की सत्ता सिद्ध नहीं होती। इसके प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने निम्न उदाहरण देकर समझाया "हे राजन् ! तू बड़ा मूढ़ मालूम होता है, मैं तुझे एक उदाहरण देकर समझाता हूँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525021
Book TitleSramana 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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