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________________ प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा : 55 की सामर्थ्य ही नहीं होती। दूसरे नरकपाल उन्हें नरक से बाहर निकलने की अनुमति भी नहीं देते। तीसरे नरक सम्बन्धी असातावेदनीय कर्म के क्षय नहीं होने से वे वहाँ से नहीं निकल पाते। चौथे उनका नरक सम्बन्धी आयुष्य कर्म जब तक क्षीण नहीं होता तब तक वे वहाँ से नहीं आ सकते। अतः तुम्हारे पितामह के द्वारा तुम्हें आकर प्रतिबोध न दे पाने के कारण यह मान्यता मत रखो कि जीव और शरीर एक ही है, अपितु यह मान्यता रखो कि जीव अन्य है और शरीर एक ही है स्मरण रहे कि दीघनिकाय में भी नरक से मनुष्य लोक में न आ पाने के इन्हीं चार कारणों का उल्लेख किया गया है। केशिकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने दूसरा तर्क प्रस्तुत किया-- हे श्रमण ! मेरी दादी अत्यन्त धार्मिक थीं। आप लोगों के मत के अनुसार वह निश्चित ही स्वर्ग में उत्पन्न हुई होंगी। मैं अपनी दादी का अत्यन्त प्रिय था, अतः उसे मुझे आकर यह बताना चाहिए कि हे पौत्र ! मैं अपने पुण्य कर्मों के कारण स्वर्ग में उत्पन्न हुई हूँ। तुम भी मेरे समान धार्मिक जीवन बितावो जिससे तुम भी विपुल पुण्य का उपार्जन कर स्वर्ग में उत्पन्न होवो। क्योंकि मेरी दादी ने स्वर्ग से आकर मुझे ऐसा प्रतिबोध नहीं दिया, अतः मैं यही मानता हूँ कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। राजा के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया -- हे राजन् ! यदि तुम स्नान, बलिकर्म और कौतुकमंगल करके देवकुल में प्रविष्ट हो रहे हो उस समय कोई पुरुष शौचालय में खड़ा होकर यह कहे कि हे स्वामिन् ! यहाँ आओ ! कुछ समय के लिए यहाँ बैठो, खड़े होवो ! तो क्या तुम उस पुरुष की बात को स्वीकार करोगे। निश्चय ही तुम उस अपवित्र स्थान पर जाना नहीं चाहोगे। इसी प्रकार हे राजन ! देव लोक में उत्पन्न देव वहाँ के दिव्य काम भोगों में इतने मूछित, गद्ध और तल्लीन हो जाते हैं कि वे मनुष्य लोक में आने की इच्छा ही नहीं करते। दूसरे देवलोक सम्बन्धी दिव्य भोगों में तल्लीन हो जाने के कारण उनका मनुष्य सम्बन्धी प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है अतः वे मनुष्य लोक में नहीं आ पाते। तीसरे देवलोक में उत्पन्न वे देव वहाँ के दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित या तल्लीन होने के कारण अभी जाता हूँ -- अभी जाता हूँ ऐसा सोचते रहते हैं, किन्तु उतने समय में अल्पायुष्य वाले मनुष्य कालधर्म को प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि देवों का एक दिन-रात मनुष्य लोक के सौ वर्ष के बराबर होता है। अतः एक दिन का भी विलम्ब होने पर यहाँ मनुष्य कालधर्म को प्राप्त हो जाता है। पुनः मनुष्य लोक इतना दुर्गन्धित और अनिष्टकर है कि उसकी दुर्गन्ध के कारण मनुष्य लोक में देव आना नहीं चाहते हैं। अतः तुम्हारी दादी के स्वर्ग से नहीं आने पर यह श्रद्धा रखना उचित नहीं है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है। केशिकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया। राजा ने कहा कि मैंने एक चोर को जीवित ही एक लोहे की कुम्भी में बन्द करवा कर अच्छी तरह से लोहे से उसका मुख ढक दिया फिर उस पर गरम लोहे और रांगे से लेप करा दिया तथा उसकी देख-रेख के लिए अपने विश्वास पात्र पुरुषों को रख दिया। कुछ दिन पश्चात् मैने उस कुम्भी को खुलवाया तो देखा कि वह मनुष्य मर चुका था किन्तु उस कुम्भी में कोई भी छिद्र, www.jainelibrary.org Jain Education Internatonal For Private & Personal Use Only
SR No.525021
Book TitleSramana 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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