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________________ भारतीय दर्शन में मोक्ष की अवधारणा : 5 1 वास्तव में तप के माध्यम से ही जीव अपने कर्मों की निर्जरा कर सकता है। इसके द्वारा कर्म-मल समाप्त हो जाता है और अन्ततः जीव सर्व प्रकार के कर्मजाल से मुक्त हो जाता है यह मोक्ष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होता है। जैनदर्शन में रत्नत्रय के विषय में विस्तारपूर्वक तर्कसंगत चर्चा हुई है। इसके अनुसार जीव- अजीव आदि नवविध तत्त्वों का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान, तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप पर किया गया श्रद्धान या स्वात्म प्रत्यक्षपूर्वक स्व-पर भेद या कर्तव्य - अकर्तव्य का विवेक सम्यग्दर्शन तथा आचरण द्वारा अन्तःकरण की शुद्धता अर्थात् कर्मबन्ध के कारणों का निरोध अर्थात् संवर (नवीन कर्मों को रोकना) तथा निर्जरा ( पूर्व संचित कर्मों को तप द्वारा क्षय करना) में लीन रहना, सम्यक् चारित्र कहलाता है। 28 जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन के महत्त्व पर बल दिया गया है । 29 उसे मोक्ष का प्रथम सोपान माना गया है। बिना सम्यग्दर्शन के जीवन-पद्धति मिथ्यादर्शी होती है। वास्तव में सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान, चारित्र, व्रत तथा तपादि सब निस्सार हैं। 30 यह निश्चित है कि सम्यग्दर्शन से जीव सर्व प्रकार की मूढ़ताओं से ऊपर उठता चला जाता है अर्थात् उसे भौतिक सुख की अपेक्षा शाश्वत आध्यात्मिक सुख का अनुभव होने लगता है। 31 सम्यग्ज्ञान के विषय में जैनदर्शन की मान्यता है कि जिस ज्ञान में संशय, विपर्यास, अनध्यवसाय तथा मिथ्यात्व का अभाव हो तो वह यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहलाता है । 32 सम्यग्दृष्टि जीव का ज्ञान मिथ्यात्त्व की अपेक्षा सम्यक्त्व पर आधारित होता है। जैनागम में ज्ञान के उसकी तरतम अवस्थाओं, कारणों एवं विषयादि के आधार पर अनेक भेद - प्रभेद किए गये हैं। 33 मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान मिथ्यात्व के संसर्ग से एक बार मिथ्याज्ञान की कोटि में आ सकते हैं किन्तु मनः पर्यय और कैवल्यज्ञान मात्र सम्यग्दर्शी जीवों में पाए जाने के कारण सम्यग्ज्ञान की सीमा में आते हैं। इस सम्यग्ज्ञान से संसारी जीव जीवन-मुक्त होता है अर्थात् पूर्ण सिद्धत्व के सन्निकट पहुँचता है । सम्यक् चारित्र के विषय में जैनदर्शन का दृष्टिकोण यह है कि बिना इसके मोक्ष तक पहुँचना नितान्त असम्भव है। इसकी सम्यक् आराधना के बिना मोक्ष की प्राप्ति संदिग्ध ही रहती है34 क्योंकि जो चारित्र रहित है उसका ज्ञान-गुण निरर्थक ही है। वास्तव में मुमुक्ष जीवों के लिए सम्यक्चारित्र उपादेय है। इस प्रकार तीनों का समन्वित रूप ही मोक्ष का मार्ग स्पष्ट करता है। 35 सम्यग्दर्शन होते ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वतः ही हो जाते हैं । कथन की दृष्टि से ही इनमें क्रम है अन्यथा इनमें ऐसा कोई क्रम नहीं है कि सम्यग्दर्शन के उपरान्त सम्यग्ज्ञान और फिर सम्यक् चारित्र ही हों, ये तीनों ही एक साथ होते हैं। वस्तुतः श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र से कर्मों का निरोध होता है। जब जीव सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से युक्त होता है, तब आस्स्रव से रहित होता है। जिसके कारण सर्वप्रथम नवीन कर्म कटते / छँटते हैं। फिर पूर्वबद्ध संचित कर्मक्षय होने लगते हैं, कालान्तर में मोहनीय कर्म सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। तदनन्तर अन्तराय ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय ये तीन कर्म भी एक साथ सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। इसके उपरान्त शेष बचे चार अघातिकर्म भी विनष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार समस्त कर्मों का क्षय कर संसारी जीव मोक्ष को प्राप्त होता है। निश्चय ही कर्ममल से दूर हटने के लिए जीवन में रत्नत्रय की समन्वित साधना नितान्त उपयोगी एवं सार्थक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525020
Book TitleSramana 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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