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________________ 2 : डॉ० राजीव प्रचण्डिया जैनदर्शन के अनुसार संसारी जीव चार गतियों नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव में से मात्र मनुष्य गति से ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है।' आयु के अन्त में उसका शरीर कर्पूरवत् उड़ जाता है और वह स्वाभाविक ऊर्ध्वगति के कारण लोकशिखर पर, जिसे सिद्धशिला कहा जाता है, अवस्थित हो जाता है । जहाँ वह अनन्तकाल तक अनन्त अतीन्द्रिय सुख का उपभोग करता हुआ अपने चरम शरीर के आकार से स्थित रहता है। वैसे तो ज्ञान ही उसका शरीर होता है। अन्य दर्शनों की भाँति जैनदर्शन उसके आत्म- प्रदेशों की सर्वव्यापकता को स्वीकार नहीं करता और न ही उसे शून्य मानता है, अपितु उसको स्वभावजन्य अनन्तज्ञानादि आठ गुणों से युक्त स्वीकारता है। जैन दर्शन के अनुसार जितने जीव मोक्ष को प्राप्त होते हैं उतने ही जीव निगोद राशि से निकलकर व्यवहार राशि में आ जाते हैं। जिससे लोक जीवों से रिक्त नहीं होता, अपितु सदा भरा रहता है। यथा जैनदर्शन की धारणा मोक्ष के सम्बन्ध में स्पष्ट है, वह सामान्यतः मोक्ष को एक ही प्रकार का मानता है किन्तु द्रव्य, भाव आदि की दृष्टियों से यह अनेक प्रकार का भी होता है जीवमोक्ष, पुद्गलमोक्ष, जीव- पुद्गलमोक्ष। 10 द्रव्य और भाव की अपेक्षा से इसके दो भेद किए जा सकते हैं एक भाव-मोक्ष तथा दूसरा द्रव्य - मोक्ष । 11 क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन एवं यथाख्यातचारित्र रूप (शुद्धरत्नत्रयात्मक ) जिन परिणामों से आत्मा से कर्म दूर किए जाते हैं उन परिणामों को भाव-मोक्ष कहा जाता है। कर्मों को निर्मूल करके शुद्धात्मा की उपलब्धि भाव-मोक्ष है और सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना अर्थात् जीव एवं कर्मों के प्रदेशों का निरवशेष रूप से पृथक् हो जाना ही द्रव्य- मोक्ष कहलाता है। 12 वास्तव में भाव - मोक्ष ही मोक्ष है क्योंकि जीवों के भावों में ही बन्धन है, मोक्ष है। 13 मोक्ष के लिए लिंग, जाति, कुल, धर्म आदि आधारभूत नहीं होते हैं, अपितु यह जीव के राग-द्वेषजन्य विकारों से मुक्त होने के उपक्रम पर निर्भर करता है । मोक्ष के इस व्यापक स्वरूप को समझने से पूर्व कर्मशृंखला तथा बन्ध - प्रणाली को समझना परमावश्यक है। यह निश्चित है कि बन्ध प्रक्रिया समझने के उपरान्त ही कोई भी संसारी जीव बन्धन काटकर मोक्ष पर प्रतिष्ठित हो सकता है 1 न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, वेदान्त और बौद्धदर्शन की भाँति जैनदर्शन भी कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि मानता है । संसारी जीव अपने कृत कर्मों का भोग करने तथा नवीन कर्मों के उपार्जन में ही सर्वथा व्यस्त एवं त्रस्त रहता है । संसारी आत्मा तथा मुक्तात्मा में भेदक रेखा मात्र कर्म बन्धन की है। वस्तुतः कर्म से सम्पृक्त जीव संसारी जीव तथा कर्म से विमुक्त जीव मुक्तात्मा / सिद्धात्मा कहलाते हैं। वह आत्मा जिसका वास्तविक स्वरूप, जो कर्मावरण से प्रच्छन्न था, प्रकट हो जाता है तो वह मुक्त हो जाता है। वास्तव में कर्म-मल हटते ही चेतना पूर्णरूप में प्रकट हो जाती है अर्थात् आत्मा के स्वाभाविक गुण परिलक्षित होने लगते हैं। इसी को मोक्ष कहते हैं। जैनदर्शन के अनुसार संसारी जीव जब कोई कार्य करता है तो उसके आसपास के वातावरण में क्षोभ उत्पन्न होता है जिसके कारण उसके चारों ओर उपस्थित कर्मशक्ति युक्त सूक्ष्म पुद्गल परमाणु/ कर्मवर्गणा आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं और इस प्रकार आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525020
Book TitleSramana 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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