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जैनमहापुराण : एक कलापरक अध्ययन
( शोध प्रबन्ध का सार संक्षेप )
डॉ० कुमुदगिरि
पुराणों की रचना ब्राहमण एवं जैन दोनों ही धर्मों में प्रचर संख्या में की गई। ये पुराण वस्तुतः भारतीय संस्कृति के विश्वकोश हैं, जिनमें विभिन्न कथाओं के माध्यम से धार्मिक जीवन के विविध पक्षों के साथ ही सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और कलापरक विषयों की विस्तारपूर्वक चर्चा मिलती है। श्वेताम्बर परम्परा में ऐसे ग्रन्थों को चरित या चरित्र तथा दिगम्बर परम्परा में पुराण कहा गया है। लगभग पाँचवीं शती ई0 से दसवीं शती ई0 के मध्य विभिन्न प्रारम्भिक जैन पुराणों की रचना की गई जिनमें प्राकृत पउमचरिय (विमलसूरिकृत 473 ई0), पद्मभूषण रविषेणकृत ( 678 ई0 ), हरिवंशपुराण ( जिनसेनकृत 783 ई० ), संस्कृत महापुराण ( जिनसेन एवं गुणभद्रकृत 9वीं-10वीं शती ई0 ) तथा अपभ्रंश महापुराण (पुष्पदन्तकृत-लगभग 690 ई0) विशेषतः उल्लेखनीय हैं।
जैन पुराणों में महापुराण सर्वाधिक लोकप्रिय था, जो आदिपुराण और उत्तरपुराण इन दो विमानों में विभक्त है। आदि पुराण की रचना जिनसेन ने लगभग 9वीं शती ई0 के मध्य
और उत्तरपुराण की रचना उनके शिष्य गुणभद्र ने 9वीं शती ई0 के अन्त या 10वीं शती ई० के प्रारम्भ में की। महापुराण में जैन देवकुल के 24 तीर्थकरों तथा 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 नारायण और 9 प्रति नारायण सहित कुल तिरसठ शलाकापुरुषों ( श्रेष्ठजनों ) के जीवन चरित का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है।
विद्वानों द्वारा किसी विशेष जैन पुराण या पुराणों के आधार पर सांस्कृतिक अध्ययन से सम्बन्धित कई महत्वपूर्ण कार्य किये गये हैं किन्तु अभी तक किसी चरित या पुराण साहित्य के आधार पर कलापरक अध्ययन का कोई समुचित प्रयास नहीं किया गया है। जैन ग्रन्थों में सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न आयामों का साहित्यिक पृष्ठभूमि की दृष्टि से विशेष महत्व है। ज्ञातव्य है कि महापुराण एवं एलोरा की जैन गुफायें समकालीन ( 9वीं - 10वीं शती ई० ) और दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध हैं, जिससे महापुराण की कलापरक सामग्री के एलोरा की जैन गुफाओं की मूर्तियों से तुलना का महत्व और भी बढ़ जाता है। एलोरा की मूर्तियों में बाहुबली की कठिन साधना के प्रसंग में उनके शरीर से माघवी का लिपटना एवं सर्प, वृश्चिक, छिपकली तथा मृग जैसे जीव जन्तुओं का शरीर पर या समीप विचरण करते हुए और
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