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आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज : एक अंशुमाली : 31
अनुसार ठीक बारह वर्ष पश्चात् वर्ष 1947 में भारत स्वतन्त्र हो गया। साहित्य साधना
ज्ञान की गरिमा व बुद्धि की प्रखरता ने आपको साहित्य सृजन की ओर प्रेरित किया। आपने संस्कृत भाषा से दूर रहने की मान्यता को छोड़कर प्रत्येक आगम को संस्कृत की छाया देकर उसे साम्प्रदायिकता से विमुक्त किया। कई आगमों का हिन्दी अनुवाद कर उन्हें सर्वजन सुलभ बना दिया। आपके व्याख्यानों में ज्ञान की गंभीरता, अनुभव की सहजता व भाव-प्रेषण की कुशलता का सम्मिश्रण मिलता है। जैन तत्त्व को सहज भाषा में लिखकर उसे सामान्यजन तक पहुँचाने हेतु आपने साठ के करीब पुस्तकें लिखीं।
आपकी स्मति बड़ी प्रबल थी। यह आपकी ब्रहमचर्य तपस्या का ही प्रतिफल था कि आपने संस्कृत के एक हजार श्लोक के ग्रन्थ को लगभग चौबीस घण्टों में ही कण्ठस्थ कर लिया था। तत्त्वार्थसूत्र व जैनागम समन्वय
आचार्यश्री जी ने सं0 1989 में दिल्ली में केवल दस दिनों में दिगम्बर मान्य तत्त्वार्थसूत्र का बत्तीस आगमों के पाठ से समन्वय कर यह सिद्ध कर दिया था कि उमास्वाति जी के तत्त्वार्थसूत्र का जैन साहित्य में वही स्थान है जो बत्तीस जैनागमों का है। आपका पूरा जीवन श्रुतज्ञान के लिए समर्पित रहा है। उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द जी म. एवं उनके शिष्य रत्नमुनि जी म. ने उनके अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रकाशित करवाने का कार्य किया है। उनके शिष्य पं. हेमचन्द्रजी ने "सूत्रकृतांगसूत्र" की व्याख्या लिखी थी जिसे उनके शिष्य श्री पद्मचन्द्र जी म. ने अन्तकृददशांगसूत्र व श्री अमरमुनिजी म. ने प्रश्नव्याकरणसूत्र और भगवतीसूत्रों का सम्पादन करने का कार्य किया है। आचार्य श्री द्वारा लिखित निरयावलिकासूत्र का सम्पादन व प्रकाशन करने का प्रयास महासती श्री स्वर्णकान्ता जी म. कर रही हैं। आचार्यश्री जी की शिष्य-परम्परा
आचार्यश्री जी की शिष्य-परम्परा के वर्तमान रत्न श्री ज्ञानमुनिजी म०, श्री. रत्नमुनिजी म एवं उपाध्याय श्री मनोहरमुनिजी म अगाध श्रद्धा एवं निष्ठा के साथ आचार्यश्री के अपूर्ण कार्यों को पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं।
उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द जी म० आपके ज्येष्ठ शिष्य रत्न श्री खजान चंद जी म0 के शिष्य थे। प्रवर्तक भंडारी श्री पद्मचन्द्र जी म आचार्य देव के शिष्य श्री पं0 वैयाकरण हेमचन्द्र जी म0 के शिष्य हैं, जिनके शिष्य श्री अमरमुनि जी म० प्रवचन प्रभावी संत हैं। देवलोकगमन
सन् 1961 में लगभग तीन मास तक कैंसर ने आपके शरीर को घेरे रखा। आचार्यश्री के शब्दों में "मुझे कर्म रोग से मुक्त करता रहा।" कैंसर की दुस्साध्य वेदना में भी
आप सदैव शान्त रहते थे। आपने अपनी नित्य क्रियाओं में कभी भी व्यवधान नहीं आने दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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