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20 : नन्दलाल जैन
बन्धों के लिये सामान्य के अतिरिक्त विशिष्ट कारक भी होते हैं। पहले दो बन्धों की तुलना में बंध अधिक स्थायी और कार्यकारी होते हैं। इनके नियम भी इसीलिये विशिष्ट है। धवला में रिजुसूत्रनयी दृष्टि से विशिष्ट कारक को "कषाय" कहा है, तथापि वहीं द्रव्यार्थिकनयी दृष्टि से अन्य कारकों को भी इस बन्ध में भी सामान्यतः समर्थ बताया है। फिर, हमारा धर्म तो भूत और भविष्य पर निर्भर करता है। उसमें इस प्रकरण में वर्तमान काल की ऐकान्तिकता की गुंजाइश ही कहाँ है ? यदि धवला के अनुसार, मिथ्यात्व और कषाय की मोहात्मकता न भी मानी जावे, तो भी पूज्यपाद, विद्यानन्द, वसुनन्दि, जयसेन और भास्करनन्दि ने अनुभाग विशेष नियम की उत्पत्ति हेतु कषाय पद के अन्तर्गत न केवल मिथ्यात्व को ही, अपितु योग को भी समाहित कर दिया है। अकषायी गुणस्थानों में तो योग को ही सर्वसमर्थ मानना होगा। साथ ही, मिथ्यात्व को कषायों की अपेक्षा विशेष अन्तरंग बहिरंग कारण भी बताया गया है। नहीं तो अकलंक दर्शनमोह के उपशम से औपशमिक चारित्र कषायादि के होने की बात कैसे कहते 246 पुष्पदंत-भूतबलि से लेकर पं० टोडरमल तक कषाय को मिथ्यात्व में कैसे गर्भित करते ? ऐसी स्थिति में कषाय शब्द को व्यापक अर्थ में लेना चाहिये ? फलतः अनेक शास्त्रों में वर्णित होगा पर्याडपदेसा, दिदि अणुभागा कसाययो होति की ऐकान्तिक धारणा पुनर्विचार चाहती है। ऐसे पुनर्विचार भूतकाल में भी किये गये हैं। अकलंक ने प्रत्यक्ष के दो विरोधी से भेद किये और अनुयोगद्वार ने परमाणु के दो भेद किये। नया युग भी सामंजस्य के लिये नयी व्याख्यायें चाहता है। आगम चक्षु का अर्थ शब्दपरकता नहीं है, तत्त्वार्थपरकता है।
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