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सन्दर्भ एवं भावावी दृष्टि
सम्बोधित करते समय "आउसंतो" शब्द का प्रयोग मिलता है। (आउसंतो गाहाक्ती, 8.2.204, 8.4.218 आउसंतो समणा 8.3.211 )। सूत्रकृतांग में भी संबोधन के लिए "आउसो" शब्द का प्रयोग मिलता है (वच्चधरं च आउसो खणाहि, 1.4.2.13)। इसी ग्रन्थ के पुण्डरीक नामक अध्ययन में (द्वितीय श्रुतस्कन्ध, प्रथम अध्ययन, पृ. 121, म.जै.वि. ) सम्बोधनार्थ बहुवचन के लिए "आउसो" शब्द के अनेक प्रयोग मिलते हैं। इसी अध्ययन के सूत्र नं. 644 में निग्रन्थों द्वरा महावीर को या भगवान महावीर द्वारा निग्रन्थों को सम्बोधित करते समय "समणाउसो" शब्द का प्रयोग हुआ है। नायाधम्मकहाओ का प्रयोग देखिए--
एवामेव समणाउसो ! जे अम्हं निग्गंथो वा...। (एन.वी. वैद्य, अ.4, पृ. 67, अ.4, पृ. 82 इत्यादि) इसिभासियाइं के प्रयोग देखिए-- आउसो ! तेतलिपुत्ता ! एहि ता आयाणाहि आउसो ! तेतलिपुत्ता ! कत्तो क्यामो (अ.10, पृ. 23.4,11, शुबिंग, ला. द. मा. अहमदाबाद)
मूलाराधना की विजयोदया टीका का पाठ इस प्रकार आचारांग (प्रस्तावना, पृ. 36, म. जै. वि. ) में उद्धृत है--
सुदं मे आउस्सन्तो ! भगवदा एवमक्खादं
इन उदाहरणों में हमें सम्बोधन के लिए दो रूप मिलते हैं-- आउसो और आउसन्तो जिनमें सामान्यतः एकवचन या बहुवचन का भेद नहीं है।
पालित्रिपिटक साहित्य में भी सम्बोधन के लिए आवुसो (यव) और आयुस्मन्तो के प्रयोग मिलते हैं। आवुसो शब्द को आयुस्मन्तो (बहुवचन ) का ही संकुचित रूप माना गया है।
अर्धमागधी प्रयोगों में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि जहाँ पर भी "आउसं" का प्रयोग है वहाँ पर उस शब्द के आगे "तेण" या "तेण" शब्द मिलता है। इससे ऐसा अनुमान होता है कि परवर्तीकाल में आउसंतेण शब्द में से दो अलग-अलग शब्द "आउसं" और "तेण" बन गये हैं। इन शब्दों के पहले "सुयं में" भी मिलता है अतः परवर्तीकाल में इस प्रकार लिखा जाने लगा होगा--
सुयं मे आउसं तेणं भगवया...।
इस बात की पुष्टि प्राचीन ग्रन्थों में बचे कुछ प्राचीन प्रयोगों से भी होती है। आचारांग, आचारांगचूर्णी और सूत्रकृतांग में बचे प्राचीन प्रयोग इस प्रकार हैं-- (1) सुयं में आउसंतेणं भगक्या एक्मक्खायं (आचारांग, 2.1.7.2.634, .म.जे. वि.संस्करण) •पालित्रिपिटक कन्कोन्स, पृ. 345
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