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________________ सन्दर्भ एवं भाषायी दृष्टि से आचारांग के उपोद्घात में प्रयुक्त प्रथम वाक्य के पाठ की प्राचीनता पर कुछ विचार - डॉ. के. आर. चन्द्र पू. गणधर श्री सुधर्मास्वामी ने भगवान महावीर के मुख से जो उपदेश सुने उन्हें अपने शिष्य जम्बूस्वामी को हस्तान्तरित करते ( मौखिक परम्परा से ) हुए वे फरमाते हैं (आचारांग, प्रथम श्रुत-स्कन्ध, प्रथम अध्ययन, प्रथम उद्देशक का प्रारम्भ ) । ।" "सुयं मे आउस! तेणं ( तेण - चूर्णी का पाठान्तर ) भगवया एवमक्खायं... इस उपोद्घात के वाक्य में सन्दर्भ की दृष्टि से दो शब्द "आउस" और " तेण" तथा भाषायी दृष्टि से तीन शब्द "सुयं", "भगवया" और "अक्खायं" पर विचार किया जा सकता है । यदि यह वाक्य कथन की एक प्रणाली प्रस्थापित करने के लिए सुधर्मास्वामी से बहुत लम्बे अर्से के पश्चात् जोड़ा गया हो तब तो इसके बारे में कुछ भी कहने को नहीं रह जाता परन्तु आगमों की प्रथम वाचना यानि चौथी शताब्दी ई. पूर्व से यदि यह विद्यमान हो तब तो अवश्य विचारणीय बन जाता है। सुधर्मास्वामी भगवान महावीर के शिष्य थे और जम्बूस्वामी सुधर्मास्वामी के । भगवान महावीर सुधर्मास्वामी के लिए समय की दृष्टि से बहुत दूर के उपदेशक गुरु नहीं थे इसलिए उन्हें भगवान महावीर के लिए ऐसा प्रयोग करना पड़े कि "उस भगवान महावीर ने ( तेणं भगवया) ऐसा कहा " । अन्तराल के वर्षों की अवधि अधिक होती और घटना कोई बहुत पुरानी होती तब तो ऐसा प्रयोग उचित लगता अन्यथा यह प्रयोग संगत नहीं लगता है। आचारांग के टीकाकार भी इस प्रयोग के बारे में एकमत नहीं हैं। जैसे कि चूर्णिकार (पृ. 9) "आउस तेण" के स्थान पर " आउसंतेण " पाठ की भी संभावना करते हैं और लिखते हैं-- अहवा आउसंतेण, जीवता कहितं अथवा आवसंतेण गुरुकुलवासं, अहवा आउसंतेण सामिपादा विणयपुवो सिस्सायरियकमो दरिसिओ होइ आवसंत आउसंतग्गहणेण । शीलांकाचार्य (पृ. 11) "श्रुतं मया आयुष्मन्" का अर्थ समझाते हुए बतलाते हैं "मयेति साक्षान्न पुनः पारम्पर्येण" यानि मैंने साक्षात्रूप से न कि परम्परा से सुना। आगे पुनः वे कहते है-- यदि वा आमृशता भगवत्पादारविन्दम्, आवसता वा तदन्तिक इत्यनेन गुरुकुलवासः कर्त्तव्य इत्यावेदितं भवति, एतच्चार्यद्वयं " आयुसंतेण आवसंतेणे" त्येतत्पाठान्तरमाश्रित्यावगन्तव्यमिति । इस प्रकार समझाया जाने पर यही उचित लगता है कि सुधर्मास्वामी ने भगवान महावीर के पास रहते हुए यह उपदेश सुना। अन्य सन्दर्भ आचारांग में ही किसी अन्य सन्दर्भ में भिक्षु द्वरा गाथापति और गाथापति द्वारा भिक्षु को Jain Education International For Privat52 Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525019
Book TitleSramana 1994 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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