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________________ रामचन्द्रसूरि और उनका साहित्य के संशोधन के समय वे पूर्ण वयस्क रहे होंगे, तभी तो उन्हें यह गुरुतर कार्यभार सौंपा गया था। डॉ. नेमिचन्द्र ने भी बिना किसी तर्क-वितर्क के रामचन्द्र की आरम्भिक तिथि 1109 ई. मानी है।34 प्रायः सभी साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि रामचन्द्र का अन्त अजयपाल (सं. 1030-1233 ) के अत्याचारों से हुआ था। इस सन्दर्भ में अनुमान है कि उसने सत्तारूढ़ होने के तत्काल बाद ही उन्हें प्राणदण्ड दिया होगा क्योंकि उसे यह भय रहा होगा कि रामचन्द्र उसके विरुद्ध कोई षड्यन्त्र न तैयार कर दें। इस आधार पर रामचन्द्रसूरि का जीवनकाल 1110 से 1173 ई. तक मानना अधिक तर्क संगत प्रतीत होता है। रचनायें रामचन्द्रसूरि की "प्रबन्धशतकर्ता"35 उपाधि से प्रतीत होता है कि उन्होंने एक सौ ग्रन्थों का सृजन किया था। परन्तु मुनि जिनविजय जी इस मत से सहमत नहीं है। उनका विचार है कि "प्रबन्धशत" एक ग्रन्थ विशेष का नाम है, जिसमें पाँच सहस्र श्लोकों में स्पक के ददश भेदों का निरूपण किया गया है।36 डॉ. के.एच. त्रिवेदी ने इस मत का खण्डन कर रामचन्द्र को सौ ग्रन्थों का रचयिता माना है।37 वस्तुतः "प्रबन्धशत" को एक ग्रन्य विशेष मानना उचित नहीं है। आज तक इस ग्रन्थ का कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं हुआ। जब रामचन्द्र ने नाट्यदर्पण में रूपक के ब्रदश भेदों का सम्यक् विवेचन कर दिया, तब उन्हें उसी विषय पर दूसरा ग्रन्थ लिखने की आवश्यकता ही क्या थी ? यदि उन्होंने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया होता तो उसके एकादि उद्धरण किसी न किसी ग्रन्थ में अवश्य मिलता। वे नाट्यदर्पण की रचना के पूर्व ही प्रबन्धशतकर्ता बन चुके थे। यदि यह स्पक रचना से सम्बन्धित ग्रन्थ होता तो उसका उल्लेख नाट्यदप्रण में ही मिलता, परन्तु ऐसा न होने से प्रबन्धशतको एक ग्रन्थ विशेष मानना उचित नहीं है। साहित्य में "शत" शब्द का प्रयोग लगभग सौ अथवा बहुसंख्यक अर्थ में होता है। स्वयं कवि ने भी कुमारविहारशतक में इस शब्द का लगभग सौ के अर्थ में प्रयोग किया है, तभी तो उन्होंने इस काव्य में 116 पद्य रखे हैं। अतः प्रबन्धशतकर्ता का तात्पर्य लगभग एक सौ ग्रन्यों का प्रणेता मानना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। आधुनिक युग के अनेक विद्वानों का भी यही मत है। अभी तक उनकी 47 रचनाओं के विषय में जानकारी उपलब्ध है, जिनमें 11 स्पक, } शास्त्रीय ग्रन्थ, 3 काव्य और 30 स्तोत्र है। (क) क -- रामचन्द्रसूरि के स्पकों का विवरण इस प्रकार है -- 1. राघयाभ्युदय -- यह नाटक अभी उपलब्ध नहीं हुआ किन्तु नलविलास38 में उल्लेख होने से यह पूर्ववर्ती रचना है। कवि ने इसे अपने पाँच सर्वोत्तम प्रबन्धों-- राघवाभ्युदय, यादवाभ्युदय, नलक्लिास, रघुक्लिास और द्रव्यालंकार में परिगणित किया है।39 नाट्यदर्पण में उपलब्ध उद्धरणों से ज्ञात होता है कि इसमें सीता-स्वयंवर से रावण-क्ध पर्यन्त कथा वर्णित है।40 2. यादवाभ्युदय -- यह भी अनुपलब्ध और नलक्लिास से पूर्ववर्ती नाटक है। इसमें कंस और Jain Education International For Private 15ersonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525019
Book TitleSramana 1994 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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