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________________ दिनेश चन्द्र चौबीसा रहे थे तथा सुरा और सुन्दरियो14 में मन रमाये, कामतृप्ति हेतु नीच व घृणित कार्य करने में संकोच नहीं करते थे। जैन-धर्म . तत्कालीन समाज में सभी धर्म विकासोन्मुख थे किन्तु इनमें बढ़ता सम्प्रदायवाद दुष्प्रवृतियों की ओर अग्रसर हो रहा था। उस समय जैन-धर्म सम्भवतः दो सम्प्रदायों में विभक्त था, जिनमें से मैले-कुचले वस्त्रों को धारण करने वाले "मलिनपटपरिधानादिभिः" के उल्लेख से "श्वेताम्बर-मत" की पाष्ट होती है। मत्तविलास में इस मत के अनुयायियों व तपश्चरणरत साधुओं के आचारगत सिद्धान्तों का भी उल्लेख है। वे सिद्धान्त अग्रलिखित हैं -- १. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना, २. सिर के एक-एक बालों का लोच करना, ३. मल धारण करना, 8. स्नानादि से विरत रहना, ५. भोजन के समय को नियम में बाँधना अर्थात् रात्रि में भोजन नहीं करना, ६. मैल वस्त्रों को धारण करना। कापालिक जैन-धर्म के उपर्युक्त आचारगत सिद्धान्तों की जमकर बुराई करता है, इन्हें पापी कहता है तथा इनकी निन्दा को अपने मुख से कहने लायक नहीं समझता है। इसमें कापालिक की सम्प्रदाय विशेष के प्रति द्वेष झलकता है। वह कहता है कि जैनी उपर्युक्त सिद्धान्तों से सर्वसाधारण को कष्ट दे रहे हैं। अतः निन्दित जैनियों के नामोच्चारण मात्र से मेरी जिहवा अपवित्र हो गयी हैं।१५ जैनधर्म में सामाजिक व सांस्कृतिक बुराइयाँ उतनी नहीं दिखाई पड़ती, जितनी की शैव-धर्म के कापालिक व पाशुपत सम्प्रदाय में और कारणवादी बौद्धम के मतावलम्बियों में। जैनाचार्य शरीर को अत्यधिक कष्ट देकर महावीर के उपदेशों का पालन करते थे। कठोर तप-साधना से मोक्ष का मार्ग तय करते थे। मत्तविलास प्रहसन में कहीं भी जैन-धर्म की समाज विरोधी प्रवृत्ति नहीं दिखाई गई है, इससे इस सत्य पर अधिक बल दिया जाता था। बौद्धधर्म बौद्ध धर्म अवनति के पथ पर बढ़ रहा था। इसमें लोगों की आस्था समाप्त हो रही थी। शाक्यभिक्षु पथ-भ्रष्ट हो चुके थे। इनमें दुराचार अत्यधिक बढ़ गया था। प्राणी-मात्र के प्रति दया रखने का उपदेश देने वाले अहिंसाव्रती बौद्ध भिक्षु मांस- भक्षण करने लगे थे। बौद्ध धर्म में व्याप्त विसंगतियों का असली चित्र शाक्यभिक्षु उद्घाटित करता है, उसका मानना है कि स्त्री-सहवास और मदिरापान का विधान अवश्य ही उसके धर्मग्रन्थों में था। किन्तु निरुत्साही, दुष्ट, वृद्ध बौद्धों ने हम तरुणों से देषकर पिटक ग्रंथों में से स्त्री-सहवास व सुरापान को अलग कर दिया है, हमें उस अवशिष्ट मूल-ग्रन्थ को प्राप्त कर बौद्ध धर्म के उपदेशों के साथ इन Jain Education International For Private & Personal Use Only ३७ www.jainelibrary.org
SR No.525013
Book TitleSramana 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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