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________________ द्रष्टव्य शराब पीने के पात्र में ढाली गई यह श्रेष्ठ मदिरा, मानो श्रृंगार की चुनौती है। प्रेम कुपितों (जनों ) के लिए मानो स्तुति है, युवावस्था की वीरता तथा विभ्रमों (विलासियों) की जान है । 3 नशेड़ी व्यक्ति ही भगवती वारुणी की इतनी प्रशंसा कर सकता है, सुरा के दोषों से अवगत सज्जन तो इसकी बुराई ही करेगा । पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मन "प्रथम" कृत मत्तविलासप्रहसन में वर्णित -- इन 3. भिक्षा मांग कर पेट भरना कापालिक सम्प्रदाय के अनुयायी "भगवान् आपका भला करे", "संसार के उपकार में लगे लोकनाथ शिव संसार का विनाश नहीं करते हैं। "4 वाक्यों के उच्चारण के साथ कपालपटह बजाते हुए भिक्षा मांगते थे।' भिक्षा कपाल' में ग्रहण करते थे। वे आदरपूर्वक लायी हुई भिक्षा के तिरस्कार को अधर्म मानते थे । 4. ये नर - कपाल को जलपान, मदिरापान, भोजन तथा शयन के लिए ( उपधान के रूप में ) काम में लेते थे । कपाल के खो जाने पर कापालिक की वेदना निम्न शब्दों में देखी जा सकती है -- "जिस पवित्र पात्र ने जलपान या मदिरापान, भोजन तथा शयन में ( उपधान-तकिया के रूप में) मेरा बहुत अधिक उपकार किया था। आज उसका अभाव अच्छे मित्र के वियोग के समान मुझे पीड़ा दे रहा है।" 1. 2. 3. 4. 5. 6. भो । कष्टम्, "येन मम पानभोजनशयनेषु नितान्तमुपकृतं शुचिना । तस्याद्य मां वियोग: सन्मित्रस्येव पीडयति । कपाल को धारण करने के कारण ही इस सम्प्रदाय के लोगों को कापालिक कहा जाता रहा, क्योंकि कपाली नामक पात्र का कपाल खो जाने पर वह विलाप करता है "मेरी सब तपस्या नष्ट हो गयी। अब मैं कैसे कपाली बनूंगा । "10 कापालिक प्राणियों की हिंसा कर मांस भक्षण करते थे।11 आर. जी. भण्डारकर 12 ने कापालिकों की इच्छापूर्ति के छः उपाय बताये हैं - ―― नर - कपाल में भोजन करना, मृत शरीर की भस्म का शरीर पर लेप करना, भस्म का भक्षण करना, लगुड धारण करना, सुरा - पात्र रखना तथा सुरा - पात्र में स्थित देवता की पूजा करना । शैव धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में पाशुपत सम्प्रदाय भी महत्त्वपूर्ण था । पशुपति शिव को मानने वाले पाशुपत कहलाये । पाशुपत सम्प्रदाय के अनुयायी शिव को ही आराध्यदेव मानकर पूजते थे । 13 संयम और सदाचार धर्म की मूल जड़ हैं, किन्तु पाशुपतों में इनका अभाव दृष्टिगोचर होता है । इनके कर्त्तव्य कर्म का क्रियात्मक स्वरूप बदल गया था, पाखण्ड और दुराचार अधिक मात्रा में पनपने लगे थे। ये धर्म की आड़ में समाज विरोधी कार्यों में प्रवृत हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525013
Book TitleSramana 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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