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________________ आचार्य हरिभद्र और उनका योग योगजन्य लब्धियां योगी योग की साधना का उपक्रम करते हुये, जहाँ चिरकाल से संचित कर्मों का क्षय करता है वहाँ योगी में अनेक विशिष्ट शक्तियां जाग्रत हो जाती हैं जिन्हें जैन परम्परा में लब्धि कहा जाता है इनमें रत्न, अणिमा, आमर्पोषधि आदि के नाम आचार्य हरिभद्र ने बताये हैं।७४ आमाँषधि -- इस लब्धि के प्रभाव से साधक के शरीर के स्पर्श मात्र से रोगी स्वस्थ हो जाता है। ___ इन लब्धियों को बौद्ध परम्परा में अभिज्ञाएं, पातंजल योग दर्शन में विभूति और वैदिक पुराणों में सिद्धि कहा गया है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जीवन का उत्तरोत्तर विकास करते अहिंसा आदि यम इतनी उत्कृष्ट कोटि में पहुँच जाते हैं कि साधक को अपने आप एक दिव्य शक्ति का उद्रेक हो जाता है। उसके सन्निधि मात्र से उपस्थित प्राणियों पर इतना प्रभाव पड़ता है कि वे स्वयं बदल जाते हैं। उनकी दुष्प्रवृत्ति छूट जाती है। पतंजलि भी कहते हैं कि अहिंसा यम के सिद्ध हो जाने पर योगी के आस-पास के वातावरण में अहिंसा इतनी व्याप्त हो जाती है कि परस्पर वैर रखने वाले प्राणी भी आपस में वैर छोड़ देते हैं। हेमचन्द्र योगशास्त्र में कहा गया है कि अस्तेय यम के सध जाने पर पृथ्वी में गुप्त स्थान में गड़े हुये रत्न प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं। हरिभद्रीय आवश्यकवृत्ति से ज्ञात होता है कि एक बार वारहवर्षका अकाल पड़ा था, अन्न की बहुत कमी हो गई थी, भिक्षुओं को आहार नहीं मिलता था, आचार्य बल विशेष लब्धि के बल से आहार लाकर संघ की रक्षा करते थे।७७ किन्तु जिस साधक का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति होता है वह भौतिक और चामत्कारिक लब्धियों के व्यामोह में नहीं फंसता। जो साधक लब्धियां पाने की अभीप्सा रखते हैं वे आत्मसिद्धि के मार्ग से च्युत होकर संसार-भ्रमण करते हैं। अतः इनकी प्राप्ति के लिये न तो साधना करनी चाहिये और न इनका प्रयोग ही करना चाहिये। जिस अनुष्ठान के पीछे लब्धि चामत्कारिक शक्ति प्राप्त करने का भाव रहता है उसे विष कहा गया है। वह महान कार्य को अल्प प्रयोजनवश तुच्छ बना देता है। __ इसलिये जैन परम्परा में योगियों को यह प्रेरणा दी गई है कि वे तप का अनुष्ठान किसी लाभ, यश, कीर्ति अथवा परलोक में इन्द्रादि देवों जैसे सुख तथा अन्य ऋद्धियां प्राप्त करने की इच्छा से न करें।८० योग का महत्त्व भारतीय संस्कृति में समस्त विचारकों, तत्त्व चिन्तकों एवं मननशील ऋषियों ने योग के महत्त्व को स्वीकार किया है। योग को लौकिक, पारलौकिक, शारीरिक तथा आत्मोन्नति का प्रबल हेतु कहा गया है। मन और इन्द्रियों की चंचलता मिटाने तथा उनको वश में करने के लिये योग की उपयोगिता स्वीकार की गई है। योग से चित्त की एकाग्रता सधती है तथा ध्येय में सफलता प्राप्त होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only १७ www.jainelibrary.org
SR No.525013
Book TitleSramana 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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